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लालसा की प्रतिध्वनि
जब से होश संभाला है मैंने,
उम्र रही होगी कोई 17-18 साल,
चाह नहीं थी, बहुत पढ़ने लिखने की।
हाँ, पर जो भी थी ख्वाहिशें,
या यों कहें,
उस उम्र में, जो भी हवाई किले बनाए थे,
बहुत चाहत थी,उन्हें पूर्ण करने की।
तब लगता था, बस इतना कमा लूँ
कि अपने मन की हर ख्वाहिश,
को संपूर्ण आकार दे सकूँ।
जो भी इच्छा, होती थी खाने की,
उन्हें जी भर कर खा सकूँ।
बचपन में जो दूसरों को देखकर मन उचकता था
कोई भी काम करने के लिए,
उन्हें अपने दम पर पूरा कर सकूँ।
अपने मन -मुताबिक, अपने मन के हर ख्वाहिशों को
पूर्ण कर, अपने सपनों को जी भर कर जी सकूँ।
लगता था, अपने साथ-साथ
अपनी माँ को भी खूब खुश कर सकूँ।
उनके भी सपनों को,
एक नई उड़ान दे सकूँ।
बचपन में जो भी थी ख्वाहिशें,
चाहे वो, खाने पीने पहनने ओढ़ने की हो,
उसे पनपता देख, शायद मन बाग-बाग हो जाए।
डॉ.अनीता शरण।