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Buddhi Aur Mn Ek Dusre K Viprit Nahi Apitu Purak h.
विचार अपर्याप्त एकाग्रता की परिणाम स्वरूपिणी अभिव्यक्ति हैं, अपर्याप्तता उस एकाग्रता की जो किसी काल्पितता विशेष की केन्द्रीयता हैं क्योंकि गहनता में एक आकर्षण होता हैं और विचारों का रूखापन आकर्षक नही अपितु विकर्षण के संज्ञान समान हैं यानी कि एकाग्रता नहीं अपितु उस एकाग्रता में अवरोधीतता का यानी बाधा का सूचक अतएव जहाँ बात एकाग्रता की हैं वहाँ क्योंकि गहन.. और गहन की जरूरियत अतएव भावना यानी कि एक चित्तता को भृम फलितता वश ज्ञान के अनुशीलन की तरह प्रेम और निष्काम समर्पण यानी कि भक्ति का विपरीत कहना हैं, उस भक्ति से विपरीत जिससे सापेक्षता उस भक्ति के पर्याय को एक दूसरों का पूरक बनाती हैं इसी लिये जिसनें विचारों के सैलाव के बीच भावनाओं को दबानें पर जोर दिया हैं उसनें बुद्धि के पूरक को ही जरूरी नहीं महसूस करके यानी उसकी जरूरत को नहीं समझ के खुद के ही पूर्णतः से वंचित कर लिया हैं और क्योंकि पूर्ण ज्ञान अर्थात् बुद्धि के प्रति नियंत्रण का अहसास जो बुद्धि को जरूरी कहें यानी कि नियंत्रण, संज्ञान, समझ यानी कि कॉग्निशन को अर्थात् नियंत्रण कर्ता जागरूकता यानी चेतना को बुद्धि के आगें प्राथमिकता नहीं दें वह आदतों यानी संस्कारों के फलस्वरूप ही ऐसा कर सकता हैं, जैसे कोई नियंत्रण यानी कॉग्निशन के स्थान पर भावों मात्र को जरूरी समझता हैं जबकि कोई बुद्धि के साथ हों या मन यानी भावनाओं के साथ, यदि उसकी प्राथमिकता नियंत्रण हैं तो ही वह पूर्ण हैं क्योंकि वह उसी भांति कर रहा हैं जैसें कोई व्यक्ति विशेष अपने मार्ग के बडे पत्थर को स्वीकार करना यानी उसके प्रति संवेदनशीलता अर्थात् भावना रखना यानी इड़ा नाड़ी से अपने ध्यान का प्रवाह मात्र करनें के स्थान पर दमन करना यानी बुद्धि स्वरूपिणी रूखी कठोर पिंगला को भी जरूरी कहता हैं, न कि किसी एक के पक्ष में रहता हैं और जितना जरूरी उतने पत्थर को खोद कर दमन कर्ता बन ध्यान का परिचय पिंगला से तथा जितना जरूरी उतने ध्यान को इड़ा से प्रवाह कर सकता हैं क्योंकि उसकी प्राथमिकता तो सुषुम्ना यानी कि विवेक हैं, मन का धैर्य यानी मन की शान्ति हैं जिनसें वह यह असमंझस से बचा रहता हैं कि केवल इड़ा या पिंगला मात्र की ही ज़रूरियत हैं और वो सफलता पूर्वक बाधा रूपी पत्थर से उसके जितने हिस्से जरूरी उनको बचा कर मन से काम लेने का और जितने पत्थर के हिस्सें जरूरी नहीं उन्हें हटा कर बुद्धि यानी ऐसा भाव जिसके लिये सभी भाव जीतने जरूरी उतने व्यर्थ भी हैं यानी कि जो भावों की अज्ञानता को जान सकती हैं उस ज्ञात्री का परिचय देती हैं और स्वयं के स्रोत से मिल कर के अपनी पूर्णतः की प्राप्ति या आगाज़ को आकार देती हैं।
© Rudra S. Sharma