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सफ़रनामा-भूतों का भानगढ…
सफ़रनामा-भूतों का भानगढ़

बात पुरानी है, शायद कुछ ज़्यादा ही पुरानी है ।

सवाई माधोपुर से अलवर के लिए एक बारात गई थी, दूल्हे का भाई हमारे रणथ्मभौर स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में हमारा साथी आर्टिस्ट था सो हम भी बरात में गये थे।

बारात में वर पक्ष के लोग अपनी अपनी कारों से गये थे इसी क्रम में उन्होंने हमारे लिए भी एक अलग निजी वाहन की व्यवस्था कर रखी थी, निजी वाहन से जाने के लाभ ये हैं कि हम जब चाहें टूअर की दिशा और डेस्टीनेशन बदल सकते हैं सो हमने भी तय किया की देर रात्रि में लौटते वक्त हम भूतों के भानगढ में रात गुज़ारेंगे।

कार्यक्रम तय हो चुका था, सभी पाँच-छह सहयात्रियों की सहमति भी थोड़े बहुत ना-नुकुर के बाद हमारे पक्ष में हो चुकी थी। अब हमें सिर्फ़ बारात में भोजन करना था और उसके पश्चात अपने गंतव्य के लिए निकल लेना था।

भोजन करते वक्त दूल्हे का भाई हमारे साथ ही था, सम्भवतया उसे किसी तरह हमारे प्लान की सूचना लग गयी थी। कुछ देर शांत रहने के बाद वो बोला “आप लोग बड़े भाई साहब की गाड़ी के साथ ही जायेंगे और ध्यान रहे आप लोग सीधे सवाई माधोपुर ही जायेंगे भानगढ़ नहीं “ ।

हमारा कार्यक्रम तय था, बड़ी मुश्किल हमें मौक़ा मिला था कि हम भानगढ़ में रात गुज़ार पायें सो हमने फोरी तोर पर सहमति दिखाते हुए कह दिया कि हम सीधे माधोपुर ही चले जायेंगे जबकि अभी भी हमारे दिमाग़ में भानगढ़ क़ाबिज़ था।

हम लोग दूल्हे के बड़े भाई साहब की गाड़ी के पीछे पीछे वहाँ से रवाना हो चूके थे, भाई साहब ने रवानगी से पहले हमें कुछ क़समें और ज़िम्मेदारियों का हवाला देते हुए उनके पीछे चलने का वादा ले लिया था सो हम भी किसी अनुशासित बालक की भाँति उनके पीछे लग लिए अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए।

अब रात्रि के डेढ़ बज चुके थे, भाई साहब की गाड़ी फ़र्राटा मारती हुई हमसे बहुत आगे निकल चुकी थी। हम लोग उस सुनसान जंगल में बिल्कुल अकेले थे और एक दोराहे पर रास्ते को लेकर कंफ्युज्ड थे ।

अभी कुछ देर ही गुज़री थी कि एक सायकिल रिक्शा वाला सामने से आता दिखा, रात के डेढ़ बजे किसी सुनसान जंगल की सड़क पर रिक्शेवाले का दिखाई देना हमें और अधिक असमंजस में डालने के लिए काफ़ी था पर दूसरा कोई और चारा नहीं था सो हमने उससे ही लालसोट होते हुए सवाई माधोपुर जाने का रास्ता पूछा।

रिक्शेवाले ने कुछ देर तक हमें यूँ ही शांतिपूर्ण तरीक़े से घूरा और बिना कुछ कहे उसने उस दोराहे से उपर की ओर जाने वाले रास्ते की ओर इशारा किया और चुपचाप आगे बढ़ गया। उसका रवैया बहुत अजीब सा लगा पर हम लोग भी थके हुए थे सो बिना कुछ ज़्यादा सोचे उसकी बताई राह पर चल दिये।

सड़क अब पहले की अपेक्षा अधिक सुनसान हो चली थी, जंगल गहराने लगा था और हमारे भीतर मन का भय भी अब बढ़ने लगा था।

हमें चलते हुए लगभग चालीस मिनट से उपर हो चले थे, दूर तक काले घने अंधेरे के सिवा कुछ नज़र नहीं आ रहा था।

हमारा ड्राइवर किसी अंजान भय के चलते सशंकित था, वह नहीं चाहता था कि हम जाने-अनजाने में भूतों के भानगढ़ पहुँच जायें। सम्भवतया उसी ने दूल्हे के भाई को हमारे भानगढ़ वाले प्लान के बारे में बताया था।

अब रात के लगभग ढाई बज रहे थे, अचानक उसका फ़ोन बजता है, यह दूल्हे के बड़े भाई साहब का कॉल था जो की किसी पेट्रोल पम्प पर रूक कर हमारा इंतज़ार कर रहे थे और शायद वो समझ चुके थे कि हम रास्ता भटक कर जाने-अनजाने में भूतों के भानगढ़ की राह पर चल पड़े हैं जो की सच भी था, सामने ही किसी होटल का बोर्ड लगा था जो वहाँ से होटल और भानगढ किले की दूरी दर्शा रहा था।

बड़े भाई साहब के कॉल और भानगढ का बोर्ड ड्राइवर को भयभीत कर देने के लिए काफ़ी था, उसने आनन फ़ानन में गाड़ी रोकी और साथ वाली सीट पर सो रहे हमारे सहयात्री को जगाया, शायद अब उसका अकेले जागकर गाड़ी चलाना संभव नहीं था, हम एक दो लोगों को छोड़कर बाक़ी सभी सो रहे थे सो हमने उन्हें जगाया और बताया कि हम गलती से भानगढ के निकट पहुँच चुके हैं।

अनायास यूँ अनजाने में भानगढ पहूँच जाने की घटना उन सबको डरा देने के लिए काफ़ी थी तो हम जागे हुए लोगों के लिए वरदान, हमें लगा मानो भानगढ हमें पुकार रहा है और जाने अनजाने उसकी और खिंचें चले जा रहे हैं।

ड्राइवर का फ़ोन इस बार फिर बजा, दूल्हे के बड़े भाई साहब अभी भी हमारा इंतज़ार कर रहे थे उसी पेट्रोल पंप पर, शायद हमारे प्रति आशंकित थे, सम्भवतया उन्हें हमारे साथ किसी अप्रिय घटना के घटित हो जाने का भय सता रहा था ।

ख़ैर हमने उनकी और अपने भयभीत सहयात्रियों की बात का मान रखते हुए बिना भानगढ गये लोटने का फ़ैसला किया ।

हम वापस तो लौट रहे थे पर अब हमारे जहन में कुछ अनसुलझे सवालों ने डेरा डाल दिया था ।

जब हम बड़े भाई साहब की गाड़ी के साथ ही रवाना हुए थे तो फिर हम उनसे बिछुड़े कैसे?

जब सवाई माधोपुर से अलवर आने का रास्ता मालूम था तो लौटते वक्त रास्ते पर कंफ्युजन क्यूँ हुआ?

जब सारी सड़क सुनसान थी तो फिर रात के डेढ़ बजे वो रिक्शे वाला किसको और कहाँ छोड़ कर आ रहा था?

जब पूरे रास्ते पर भानगढ का बोर्ड नहीं दिखाई दिया तो फिर बड़े भाई साहब के फ़ोन आने पर ही क्यूँ अचानक से वो बोर्ड नज़र आने लगा?

क्या वाक़ई भानगढ इतना भूतिया है कि सिर्फ़ प्लानिंग करने मात्र से ही हमें अपनी और खींचने लगा था?

आज भी जब हम लोग उस रात को याद करते हैं तो मन अनगिनत आशंकाओं से भर जाता है, शायद उस रात में कुछ तो ऐसा था जो हमे भानगढ ले जाना चाहता था ।

भूतों का भानगढ
✍️ विक्की सिंह
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