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कोरा पन्ना
मेरे सामने मेज़ पर कागज़ का एक कोरा पन्ना था जिसके किनारे पर  बारीकी से दो नाम जुदा जुदा लिखे थे और बीच का हिस्सा भीगने पर खुरदुरा सा था | मैंने तजस्सुस में उस पन्ने को उठाया और उस भीगी सतह पे मांद पड़े धुंधले अलफ़ाज़ के निशाँ पढ़ना चाही लेकिन उसपे किसी रौशनाई का  न रंग था और ना ही अलफ़ाज़ के अधूरे निशाँ ,  जैसे बीच में  कुछ लिखा ही न गया हो जाने क्या लिखा होगा किसी ने वैसे भी इश्क़ लफ़्ज़ों में कहा होते हैं इसकी खुशबु तो आत्माओं में बसी होती हैं | मेरी और विनय की कहानी भी तो ऐसी ही अधूरी थी | मेरी समझ इस कोरे पन्ने पे लिखे एहसास को पढ़ने से क़ासिर थी लेकिन दिल के क़तरे ने तुरंत इस समंदर से अपनी उन्सियत मह्सूस कर ली थी लिखने वाले आशिक़ ने बीच में आँखों से टपके उस खाली सतह पे भरे उस मझधार को दिखाया होगा और दो नाम दो अलग अलग किनारे जो मिल कर भी नहीं मिलते ! मैं अभी इसे महसूस कर ही रही थी तभी एक हवा का झोंका आया और इस पन्ने को उड़ा कर होटल के इस कॉटेज से बाहर समंदरी बीच की उन लहरों में समा ले गया मालूम नहीं मैं उस पन्ने  के पीछे पीछे क्यों गयी मेर कदम तो रुक गए थे लेकिन मैं समझ गयी थी के ये उस आशिक़ की रूह थी जिसने पढ़ने वाले को अपनी ओर खींचना चाहा काश मेरा विनय भी इस सच्चे आशिक़ की तरह होता तभी लेहरो में एक जोश सा उठा चट्टानों से टकरा कर गूंजने वाली उस तरंगों ने मानो  उस आशिक़  की ज़ुबाँ बन  कर मुझे थेंक्स कहना चाहा हो की "खेर किसी ने तो मेरे जज़्बात को समझा‌ ।


© 0✍️sifar
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