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पिता
महाभारत में ‘पिता’ की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है:
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परम तपः।
पितरि प्रितिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवताः
अर्थात ‘पिता’ ही धर्म है, ‘पिता’ स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। ‘पिता’ के प्रसन्न हो जाने से सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। इसके साथ ही कहा गया है कि ‘पितु र्हि वचनं कुर्वन न कन्श्चितनाम हीयते’ अर्थात ‘पिता’ के वचन का पालन करने वाला दीन-हीन नहीं होता।
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में पिता की सेवा करने व उसकी आज्ञा का पालन करने के महत्व का उल्लेख करते हुए कहा गया है:
न तो धर्म चरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रुषा तस्य वा वचनक्रिपा।।
अर्थात, पिता की सेवा अथवा, उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है।
हम बड़े भाग्यशाली हैं कि आपने हमे वे सभी संस्कार दिए जो मानव जीवन के उचित मूल्यों पर चलकर जीवन को सार्थक करने के लिए प्रयाप्त है।
इन सब से इतर आपने बालकल्य में ही ठाकुर प्रेम का जो बीज बोया उससे मानव जीवन कृतार्थ हो गया । क्यूं कि"जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्यदास,
कृष्णेर तथास्थ शक्ति भेदाभेद प्रकाश
(श्री चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला २०.१०८)
अर्थात "यह जीव की स्वाभाविक स्थिति है कि वह कृष्ण का शाश्वत सेवक बने, क्योंकि वह कृष्ण की सीमांत शक्ति है और भगवान से एक तथा भिन्न दोनों रूपों में प्रकट है।"
आधुनिक युवापीढ़ी को ‘पितृ-दिवस’ पर संकल्प लेना चाहिए कि वैदिक सभ्यता एवं संस्कृति के अनुरूप वे अपने पिता के प्रति सभी दायित्वों का पालन करने का हरसंभव प्रयास करेंगे और साथ ही महर्षि वेदव्यास द्वारा महाभारत के आदिपर्व में दिए गए ज्ञान का सहज अनुसरण करेंगे कि ‘जो माता-पिता की आज्ञा मानता है, उनका हित चाहता है, उनके अनुकूल चलता है तथा माता-पिता के प्रति पुत्रोचित व्यवहार करता है, वास्तव में वही पुत्र है।’ हमें हमेशा यह याद रखने की आवश्यकता है कि ‘‘देवतं हि पिता महत्’’ अर्थात ‘पिता’ ही महान देवता है।