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परिधान संस्कृति
ब्लैक इंक

परिधान संस्कृति के संस्कार में जमता आंखों का पानी

न तों मर्दों की आंखों से पानी उतर रहा हैं और न ही औरत के जिस्म का सुरूर उतर रहा हैं दोनों ही बागवा ए प्रदर्शनी में जिस्म और नज़रों का खेल खेलने से नहीं चूक रहें हैं. ये आलम हैं आज के दौर का के परहेज खाने से करके भी परिधानों तक की होड़ में जिस्मो की नुमाइशो की परम्परा के चलते भारत के परिधानिक संस्कृति को नीचा दिखाने से आज की युवा नारी ही नहीं शादी शुदा भी पीछे नहीं हैं. साड़ी भी हैं तों कमबख्त नाभि यदा कदा करिने से झांक कर मन चलों को रिझा ही लेती हैं और अगर जींस पेंट पर टॉप हैं तों भले कमर मोटी हो या पतली या फिर नाक नक्श जैसा भी हो फिर भी उरेजों का झाकना भी क्या उस नारी के बस में होता हैं भला... नहीं न. और जिनकी आंखों में पानी होता हैं उस परुष की शर्मिंदगी से पूछो के उसे क्या क्या नहीं झेलना होता हैं. अगर वो किसी भी औरत को आगाह भी करें तों उसे लम्पट या लुच्चा की संज्ञा से नवाज़ भी दिया जाता हैं.

आज के इस दौर में न जानें क्या से क्या हो रहा हैं बिना फेसन के शायद चाहे वो औरत हो या मर्द दोनों ही दोनों को लुभाने की होड़ में बहुत कुछ खोते आ रहें हैं आज चाहे मर्द की आँखे हो या औरत की उनके आंखों में शर्म का पानी भी बेशर्मी से ठहर कर ज़िन्दगी की इस आधुनिकता के फेसन में लिपटे जिस्मो को निहार रहा हैं. जिस्म भला कभी अपनी मर्जी का मालिक हो सका हैं जो वो खुद अपनी नुमाइश को होने से रोक सके.

वास्तविकता बस यही हैं कि आज भारत से परिधान संस्कृति के संस्कार तेजी से विलुप्त होते जा रहें हैं..