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तन और मन
मनुष्य तन तो नाशवान है। यह तन अर्थात शरीर तो हर जन्म में मिट जाता है। लेकिन हमारा मन ? मन नहीं मिटता ; हमारा मन हमारे एक जन्म से दूसरे जन्म में चला जाता है.! जब मनुष्य मरता है तो केवल उसका शरीर छूटता है, मन नहीं ! हमारा यह मन तो केवल तभी छूटता है , जब हम मुक्त होते हैं और मृत्यु की सामर्थ्य भी मन का अंत करने की नहीं है। मृत्यु तो केवल शरीर को मिटाती है, मन को नहीं।हमारा यह मन तो मृत्यु के भी पार चला जाता है।
अब सवाल उठता है कि मन कैसे मिटे? तो मित्रो केवल समाधि (आज के युग में ध्यान/योग ) में ही सामर्थ्य है मन को भी मिटा देने की। इसलिए ही ज्ञानियों ने, समाधि को महामृत्यु कहा है। क्योंकि मृत्यु में तो मरता है केवल शरीर और समाधि में मर जाते हैं दोनों - शरीर और मन - और शेष रह जाता है केवल वही,जो मर ही नहीं सकता ; जो अमृत है , जिसकी कोई मृत्यु नहीं हो सकती !

इस प्रकार मन तो अनंत काल तक निर्मित होता हुआ, इकठ्ठा होता हुआ, बढ़ता चला जाता है। इसमें हर जन्म के संस्कार बढ़ते जाते हैं और हर बार हर जन्म में हमेशा की तरह शरीर छूट जाता है और मन आत्मा के साथ जुड़ा रहता है। इस मन की छाया आत्मा पर बनती रहती है और फिर धीरे - धीरे आत्मा को भी ऐसा लगने लगता है कि जो मन में है,वही मैं हूँ। यही है हमारा संसार ,यही है हमारी गांठ !

पुनश्च:अब प्रश्न वही कि इस गांठ को खोलें कैसे? तो इस गांठ को खोलने का एक ही उपाय है कि हम थोड़ी देर के लिए बिना मन के हो जाएं ! इस शरीर को भूल जायें। मन को हटा कर रख दें, और अपने को केवल आत्मा समझें। वह आत्मा इस शरीर को चला रही है। जो निर्लेप है। अजर-अमर है। जो शरीर बदलती है।
एक बार इस जगत को आमने - सामने देख लें। बीच में किसी दलाल को न लें, किसी मध्यस्थ को न लें ! उपराम स्थिति में पहुँच जायें। अगर इस प्रकार एक भी झलक मिल जाए हमें मन के बिना जगत की, तो समझो यह स्पष्ट हो जाएगा कि भीतर कुछ भी, कभी गया नहीं। भीतर का दर्पण तो सदा साफ़ है, एकदम निर्मल है। उसने कोई बिंब पकड़ा नहीं है। उस पर पड़ने वाले सारे बिंब आये और गये हैं। जन्मों-जन्मों की कथाएं बीत जाती हैं, लेकिन कोई भी रेखा, जरा सी भी खरोंच वहाँ छूटती ही नहीं है। बस यही है समाधी !यही है मन को तन से मुक्त करने का साधन !


© Suraj Sharma'Master ji'