...

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वो किताब
यह बात तब की है जब हमारी उम्र बहुत कम थी। हमने चौथी कक्षा की परीक्षा दी थी। पापा जी मीटिंग के काम से किसी दूसरे शहर गए थे। वहाँ से लौटते वक़्त उन्होंने हमारे लिए एक किताब खरीदी.. "कहानी की किताब" और घर आते ही हमें थमा दी। हम बहुत ख़ुश हुए थे। हमें आज भी याद है वो किताब 'अकबर और बीरबल' नाम की थी। कुछ दिनों बाद अचानक पता चला कि पापा जी ने किसी दूसरे शहर में ट्रांसफर करा लिया है। पूरा सामान पैक किया जा रहा था। बड़े बड़े बॉक्स में सामान रख कर उसकी पैकिंग हो रही थी। मगर वो किताब जिस दिन से आई थी हमारे हाथ में ही रहती थी। आख़िरी बॉक्स पैक हो रहा था। पापा जी ने कहा 'बेटा किताब इसमें रख दो वरना गुमा दोगे'!
ऐसा सुनकर हमने अपने हाथों से उस किताब को उस बॉक्स में रख दिया। बॉक्स पैक हो गए और हम सब भी कुछ दिन में सब सामान के साथ दूसरे शहर आ चुके थे। धीरे-धीरे सामान खुलता गया और साथ ही नए घर में जमाया जाने लगा। सब काम व्यवस्थित रूप से हो गया। हमारा दाख़िला भी नए स्कूल में पाँचवी कक्षा में करा दिया गया। मगर बहुत इंतज़ार के बाद भी वो किताब नहीं मिली। घर पर सभी का यही कहना था की सब छोटे-बड़े बॉक्स खुल चुके हैं मगर वो किताब किसी भी बॉक्स में नहीं है। मगर हमने ज़िद कर-करके ना जाने कितनी ही बार पूरे घर में ढूंढवाया हर जगह खुद उसको ढूंढा मगर वो किताब नहीं मिली। फिर भी हम नहीं माने हमेशा दीवाली की सफ़ाई के समय सबसे कह देते किताब मिल जाए तो बता देना। उस किताब के लिए बहुत रोए भी पूरा घर सिर पर उठा लिया, मगर वो किताब नहीं मिली।
पापा जी ने कहा ' हम नई किताब ला देंगे, उससे भी अच्छी'!
मगर नहीं! हमें वही किताब चाहिए थी।
जो खो जाता है वही तो चाहिए होता है, उससे मिलता-जुलता भी नहीं, कुछ और भी नहीं।
आज भी जब दीवाली पर घर की सफ़ाई होती है तो लगता है कोई आकर कह दे.. 'किताब मिल गई'!
उस किताब को ज़्यादा नहीं पढ़ पाए थे.. इसलिए केवल नाम और उसकी पहली कहानी के कुछ याद नहीं।
पहली कहानी में अकबर झूले पर झूलते हुए बीरबल से बात कर रहे होते हैं।
कभी लगता है काश वो हमसे फट जाती या ख़राब हो जाती
मगर गुमती नहीं।
कुछ टूटने से अधिक दुःख हमें उसके गुम जाने पर होता है।
हम आज भी उस किताब को ढूंढते हैं.. यह सोचकर की शायद वो मिल जाए। अब जबकि घर भी बदल चुका है..
तो तुम्ही सोचो तुम्हें कैसे भूल जाएं.. "तुम्हें भी तो हमने खो दिया है"!
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