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पराकाष्ठा प्रेम की
मोहब्बत ना दायरों में किया जाता है
ना मोहब्बत कभी किसी मायनों में तय होता है
मोहब्बत तो एक ऐसा पौधा है
जो पत्थरों में उगने की शक्ति खुद में समाहित रखता है
प्रेम जितना पवित्र ना कोई रिश्ता हुआ कभी और ना होगा कभी ।।
फिर चाहे वो प्रेम माता का अपने औलाद से हो ,बच्चों का अपने माता पिता से हो,बहन का भाई से या भाई का बहन से ….
ऐसे ही हर रिश्ते और हर रिश्तों का प्रेम खुद में एक ख़ूबसूरती लिए होता है बस उस अनुराग को समझने की शक्ति हर एक इंसान में साफ़ मन से होनी चाहिए ।
प्रेम सिर्फ़ त्याग में अपनी चरम सीमा में पहुँचता है रही प्रेम की पराकाष्ठा क्या है
तो जैसे सागर का कोई छोर नहीं होता
उसी तरह प्रेम की पराकाष्ठा करना मुकम्मल नहीं बस प्रेम जिस भी ह्रदय में निहित हो वह ह्रदय में प्रेम पवित्र रूप विराजमान होना चाहिए ।।
क्योंकि विष मीरा के प्रेम की पराकाष्ठा थी जिसका अंत आजतक कोई नहीं जान पाया और प्रेम राधा के त्याग की पराकाष्ठा थी
जिसका अर्थ आज का मानव कभी नहीं जान पाया ।।
प्रेम समर्पण की वह पहली दहलीज़ होती है जहाँ प्रेम रूपी पौधा एक विशाल वृक्ष बनकर तैयार होता है बस शर्त प्रेम की इतनी सी है कि वह गंगाजल जैसा पवित्र हो ।।
@mannudtapanchi