...

4 views

स्त्री-पुरुष
पुरुष की उत्सुकता किसी भी स्त्री में तभी तक होती है, जब तक वह उसे जीत नहीं लेता। जीतने के बाद ही उसकी उत्सुकता समाप्त हो जाती है। स्त्री को जीतते ही फिर कोई रस नहीं रह जाता।

नीत्शे ने कहा है कि पुरुष का गहरे से गहरा रस एक मात्र विजय है। कामवासना भी उतनी गहरी विजय नहीं है। कामवासना सिर्फ विजय का एक क्षेत्र है।
बस इसलिए पत्नी में उत्सुकता समाप्त हो जाती है, क्योंकि वह जीती ही जा चुकी होती है। उसमें कोई अब जीतने को बाकी कुछ भी नहीं रहा है।

इसलिए जो बुद्धिमान पत्नियां हैं, वे सदा इस भांति जीएंगी की पति के साथ जीतने को कुछ बाकी बना रहे। नहीं तो पुरुष का कोई रस सीधे स्त्री में नहीं है। अगर कुछ अभी जीतने को बाकी है तो उसका रस होगा।

अगर सब जीता जा चुका है तो उसका रस खो जाएगा। तब कभी-कभी ऐसा भी घटित होता है कि अपनी सुंदर पत्नी को छोड़ कर वह एक साधारण सी स्त्री में भी उत्सुक हो सकता है। और तब लोगों को बड़ी हैरानी होती है कि यह उत्सुकता सिर्फ पागलपन की है। इतनी सुंदर उसकी पत्नी है और फिर भी वह नौकरानी के पीछे दीवाना है!

पर आप इस स्तिथि को समझ नहीं पा रहे हैं। क्योंकि नौकरानी अभी जीती जा सकती है; पत्नी जीती जा चुकी है। सुंदर और असुंदर बहुत मौलिक नहीं हैं।

स्त्री की सुंदरता का पुरुष कुछ समय तक ही वशीभूत रहता है या कह सकते हैं कि पुरुष स्त्री के समीप रहते-रहते सुन्दरता को भूल जाता है और अन्य स्त्री की तरफ मोहित हो जाता है!

इसलिये पुरुष का मानना है कि जितनी कठिनाई होगी जीत में, उतना पुरुष का रस गहन, लालाहित और इच्छापूर्ति योग्य होगा। जबकि स्त्री की स्थिति बिल्कुल और (विपरीत) है।
जितना पुरुष मिला हुआ हो, जितना उसे अपना
मालूम पड़े, पर जितनी दूरी कम हो गई हो, उतनी ही वह ज्यादा लीन हो सकेगी।
स्त्री इसलिए पत्नी होने में उत्सुक होती है; प्रेयसी होने में उत्सुक नहीं होती।
पुरुष प्रेमी होने में उत्सुक होता है; पति होना उसकी मजबूरी सी है।
स्त्री का यह जो संतुलित भाव है-- विजय की आकांक्षा नहीं है-- यह ज्यादा मौलिक स्थिति है। क्योंकि असंतुलन हमेशा संतुलन के बाद की स्थिति है।
संतुलन प्रकृति का स्वभाव है। इसलिए हमने पुरुष को पुरुष कहा है औरस्त्री को प्रकृति कहा है। प्रकृति का मतलब है कि जैसी स्थिति होनी चाहिए स्वभावतः।