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स्कूल की ओ लडकी( उपन्यास )
भाग 1(दाखिला
जिंदगी के कई ऐसे पल होते हैं जो हम कभी नहीं भूलते ,चाहे ओ अपने कितने बड़े प्रतिद्वंद्वी क्यों न रहे हों ।
जब हम उस उम्र की दहलीज को पार करके आगे निकल जाते हैं तो वो हमारे मन में एक तस्वीर की तरह बस जाते हैं और जब उम्र के किसी पड़ाव में मिलते हैं तो इतने हर्ष के साथ मिलते हैं कि मानो कितने बड़े मित्र रह चुके हैं, तब उस समय की लड़ाइया भी हमें मीठे आनंद का अनुभव कराती हैं क्योंकि हम जब बड़े होते हैं तो बड़े होने के साथ हमारे  बुद्धि का विकास होता है हमें अच्छे बुरे की समझ हो जाती है तब वहीं बचपन की लड़ाइयां हमें एक छोटी सी नादानी लगती है और तब हमारे बचपन के मित्र याद आते हैं उनके साथ बीता हर पल चाहे अच्छा चाहे बुरा।

किन्तु स्कूल के दिनों में लड़कों की सबसे बड़ी शत्रु जिनके साथ सदैव लड़कों का पढ़ाई के मामले में 36 का आंकड़ा रहता था ओ कोई और नहीं उनके कक्षा में पढ़ने वाली लड़कियां ही होती थी।
जो लड़कों को किसी भी विषय यहां तक की पढ़ाई के पाली में भी मास्टर जी के द्वारा मार खिलाने के लिए एड़ी चोटी का बल लगा देती थीं, यदि ओ सफल हो जाएं तो मानो उनको वो आनन्द आता था जैसे स्वर्ग मिल गया हो या फिर यूं कहें तो उस वक्त कक्षा में अनुशासन वाले नीरस समय में उनके मनोरंजन का एक मात्र साधन लड़कों की पिटाई भी थी जो कभी कभी पूरी हो जाती थी और यही साधन लड़कों का भी था या यूं कहें कि हर पाली में किसी न किसी पक्ष को हंसने का मौका मिल जाता था और हमारी कहानी भी यही से शुरू होती है---

ये उस समय की बात है जब एक लड़के  अरुण का सरकारी स्कूल के कक्षा दो में नामांकन हुआ था ।
उस स्कूल में करीब दो सौ बच्चे पढ़ते थे क्योंकि गांव का एक मात्र स्कूल वहीं था और वहां पढ़ाई भी बहुत अच्छी होती थी इसलिए उसके भैया ने उसका नाम उस स्कूल में लिखवाया ।
जब अरुण पहले दिन स्कूल पहुंचा तो उसके हेडमास्टर उसको उसकी कक्षा में लेकर  गये और उसका सभी छात्र छात्राओं से परिचय कराया जिनमें कुछ होशियार बच्चे थे और कुछ गधे भी परन्तु हेडमास्टर जी ने गधों से दूर रहने की हिदायत दी और पहले दिन परिचय बनाने तथा पठन पाठन शैली के साथ स्कूल के नियम जानने के लिए कक्षा के छात्रों से बात करने की सलाह दी और अपने आफिस में चले गये।
वैसे तो कक्षा के छात्र छात्राओं में कभी एकता नहीं होती किन्तु कोई जब बाहरी लड़का उनके कक्षा में प्रवेश करता है तो उसे परेशान करने के लिए ओ कुछ घड़ी के लिए एक हो जाते हैं जैसे कितने वर्षों के मित्र हों।
अरुण आगे की सीट पर बैठने लगा तो कक्षा एक  होशियार बच्चा बोला ये मेरी सीट है तुम पीछे बैठो और जैसे हमेशा से होता आया है कि होशियार बच्चे थोड़े घमण्डी होते हैं तो ये उसी का प्रभाव था जो उस वक्त  कोई नहीं समझता था।
वैसे अरुण का पहला दिन था तो ओ आगे बढ़ा पर वहां भी बैठने को नहीं मिला ऐसे ऐसे सब मना कर रहे थे और कुछ बच्चे हंस भी रहे थे शायद कक्षा में नये विद्यार्थी के स्वागत करने का उनका कोई नया तरीका था ,खैर जिसके पास हेडमास्टर जी ने बैठने से मना किया था उस गधे ने मतलब रजनीश ने अरुण को अपने पास बैठने दिया उसने उसे धन्यवाद किया और वो इस तरह उसका पहला दोस्त बना।
सभी लोग अरुण से अंजान थे इसलिए सब उसको देख देख के हंस रहे थे .............


मित्रों इस उपन्यास का अगला भाग जल्द ही प्रकाशित करुंगा आप इसे पढ़े और अपने मित्रो के साथ शेयर करें।।
धन्यवाद
लेखक -- अरुण कुमार शुक्ल



© अरुण कुमार शुक्ल