...

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इक कहानी अपनी सी...
एक कहानी अपनी सी...
शायद सब जैसी...
पर निजी इतनी की पड़ जाएं
सामने तो अनजानी सी...

यूं बहुत ही समान्य चल रहा था जीवन..ना कोई उथल पुथल थी ना कोई कमी.. सब कुछ तो था प्यार प्रेम लगाव और वो सब कुछ जो जो होना चाहिए.. पत्नी भी उसकी सुंदर ही थी..
तो कमी किस चीज़ की थी.. जो उलझ गया वो उन संबंधों में.. घंटो बातें हुई उससे कहीं कोई कमी दिखाई ही ना दे रही थी.. शरीफ़ बंदा था.. सैक्स की तड़प भी ना थी और सुंदरता भी आकर्षित ना कर पाती थी किसी की भी उसे.. पर फिर क्या था कारण...
अचानक बात करते करते बेहद निजी पलों की.. कुछ पता लगा.. मतलब सब था एक उन्मुक्तता को छोड़.. इसलिए ही जीवन एक मशीनी रूप सा हो गया था उनका.. सब कुछ अभिव्यक्त होता था.. पर सन्देह कहीं कहीं न कहीं ये रहता था.. की हमारी उन्मुक्तता को गलत न समझ लिया जाएं.. हमारे व्यक्तित्व पर ऊंगली ना उठ जाएं.. इसलिए सब होते हुए.. एक अलग सा इंसान पल जाता है भीतर एक इन्सान के... जो नितान्त अकेला होता है.. छुपा हुआ.. वो बाहर आता है जब कोई अपना सा मिलता है उसको.. जो खुल कर बातें करता हो उससे.. उसकी मस्तियों में साथ देता हो उसका.. जहां ये गुंजाइश न रह जाती हो की अगला क्या सोचेगा... व्यक्त कर सके वो खुद को.. ना खोने की चिंता हो कुछ ना पाने की अभिलाषा...
ना जानें कितने सहमत होंगे मुझसे पर.. इतना तो सब मानेंगे की पलता है एक अलग ही इन्सान हर एक के अंदर... जो बाहरी आवरण से अलग होता है.. जिसको दबा के जीवन जीता है वो..
शायद सभी के पास ऐसी कुछ बातें अवश्य होंगी ही जिसे किसी से न सांझा कर पाता है वो.. एकांत के पलों में उसको जीता है वो...
इसलिए ही तस्वीरों में दिखाते हैं मुखोटों पर मुखोटे लगा जीता है इंसान...
© दी कु पा