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वह... रिक्शावाला
1. अब अभाव नहीं

मेरा परिवार, लंबा-चौड़ा नहीं है। हम दो ही सदस्य हैं - मैं और मेरी माँ। पिताजी नहीं थे मेरे। पिताजी की मृत्यु के उपरांत माँ को उनकी जगह नौकरी मिल गई थी।

कुछ लोगों को उनकी सरकारी नौकरी से ईर्ष्या होती, तो कोई उन्हें खुश- नसीब कहता। दो साल पहले माँ सेवा- निवृत्त हुईं थीं। एक सरकारी दफ्तर में झाडू लगाने का काम करतीं थीं वे। मेरा बचपन एक कमरे के सरकारी क्वाटर में अभावों में बीता था। जैसे ही माँ को सेवा- निवृत्ति के उपरांत पैसा मिला, मैं नित नए सपने देखने लगा।

हमने दो कमरों का फ्लैट लिया। 'नया सोफ़ा, नया टी. वी., नया पलंग' इन सबसे हमने अपने नए घर को सजाया। मैंने ज़िद करके एक बाइक और एक नया मोबाइल फोन भी लिया। कुछ नए कपड़े भी खरीद लिए। माँ को समझाया कि नौकरी के साक्षात्कार के लिए जाऊँगा तो अच्छा प्रभाव पड़ेगा। माँ ने बहुत समझाने की कोशिश की पर इकलौते बेटे की ज़िद के आगे हार गईं।

मैं हर रोज़ बाइक पर नौकरी ढूँढने के बहाने निकल पड़ता। कुछ समय दोस्तों के साथ बिताता, शाम को थका सा मुँह बना वापस आ जाता। शाम को चाय के साथ कभी समोसे तो कभी पकोड़े की माँग करता। माँ कुछ कहती तो बस इतना कहता, "कुछ दिन और पेंशन से खर्चा चला ले माँ, नौकरी लगते ही तुझे रानी बना कर रखूँगा। माँ वैसे तो बहुत समझदार थी, पर हर बार मेरी बातों में आ ही जाती थी।

*****

2. पहली मुलाकात

आज के दिन की शुरूआत ही अजीब ढ़ग से हुई थी। माँ ने सिर पर हाथ फेरकर उठाया नहीं था।

जब उठा तो देखा माँ सोई हुई थी। चेहरा दूर से ही लाल लग रहा था, पास गया तो देखा बुखार था। "परेशान मत होना माँ, मैं बाहर ही कुछ खा लूँगा", यह कह मैं तैयार होने चला गया।

तैयार होते हुए शीशे में खुद को देख में इतरा रहा था। दादी की बात आ गई, "बिलकुल राजकुमार लगता है मेरा पोता। किसी की नज़र न लगे।" यह कहकर मेरी बलाएँ लिया करतीं थीं।

माँ दफ्तर जातीं थीं इसलिए दादी के साथ ही मेरा बचपन बीता था। अनपढ़ थीं इसलिए यह नहीं देख पातीं थीं के मैं क्या पढ़ रहा हूँ, पर हर रोज़ पढ़ने जरूर बैठा देतीं थीं। उनके स्वर्गवास के बाद, मैं आज़ाद परिंदा बन गया था।

जल्दी- जल्दी तैयार हो मैंने माँ के पर्स से पाँच सौ का नोट निकाला, बाइक की चाबी उठाई और चल दिया।

'ओह!' बाइक को भी आज ही पंक्चर होना था! अभी तो कोई पंक्चर लगाने वाले की दुकान भी नहीं खुली होगी। चलो कोई बात नहीं शाम को लगवा लूँगा। आज कहीं पास का ही प्रोग्राम बनाता हूँ। यह सोच घर से निकल गया।

'बाबूजी, बाबूजी पीछे से आवाज़ आई।" मैंने मुड़ कर देखा तो एक रिक्शा चला आ रहा था। पास पहुँच कर उसने रिक्शा रोक दी। "बाबूजी आज पैदल ही जा रहें हैं। कहीं पास ही जाना है तो आइए मैं रिक्शा से छोड़ दूँ।" "पैसे कितने लोगे?" मैंने पूछा। "बाबूजी आप से थोड़े ही भाव करूँगा। जो ठीक लगे दे देना। नहीं भी दोगे तो कोई बात नहीं, आप माँजी के बेटे हो, आपके लिए इतना तो कर ही सकता हूँ। आपकी बाइक को क्या हुआ? पंक्चर हो गई क्या?" वह बोलता ही जा रहा था। मैंने जवाब देना जरूरी नहीं समझा।

बस स्टैंड पर रिक्शा से उतरकर मैंने पाँच सौ का नोट पकड़ाया तो वह बोला, "बाबूजी क्यों गरीब का मज़ाक उड़ा रहे हो?" यह कहकर वह अपनी रिक्शा की घंटी बजाता हुआ आगे बढ़ गया।

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3. बातूनी

शाम को बस स्टैंड पर वही रिक्शावाला मिल गया। कहने लगा, "मुझे पता है आप रोज़ इसी समय आते हैं। आपका ही इंतजार कर रहा था।"

"बाबूजी आपको छोड़कर, मैं सीधा मिस्री को लेकर आपके घर गया था, कील घुस गयी थी टायर में। पंक्चर लगवा दिया। माफ करना बाबूजी मेरे पास पचास रुपये नहीं थे इसलिए माँजी से लेकर देने पड़े। कोई माँ से भला पैसे लेता है! गरीब हूँ बाबूजी, पर माँ क्या होती है यह मैं भी समझता हूँ!"

"अरे हाँ, एक बात तो बताना भूल ही गया कि माँजी को तेज़ बुखार था। केमिस्ट से दवाई लाकर दे दी थी। सोचा था दोपहर को जाकर फिर से हाल पूछ लूँगा पर दूर की सवारी मिल गई थी इसलिए जा न सका।"

"कितना बोलता है यह! चुप होने का नाम ही लेता।" मेरे इतना सोचते ही वह फिर शुरू हो गया।

"अरे! बाबूजी आपको एक और बात भी बताना भूल गया। आज आप बैठे तो मेरी रिक्शा के भाग्य ही खुल गए। आज ही मुझे बच्चों को रोज़ स्कूल छोड़ने का काम मिल गया। पूरे दो हज़ार मिले, वो भी एडवांस। मैंने डेढ़ हज़ार गाँव में माई को भेज दिए। यह महीना आराम से कट जाएगा। इसलिए ही तो माई को अकेला छोड़ दिल्ली आया था।"

"वह सोचती है के उसका बेटा नौकरी करता है। उनको नहीं पता के मैं रिक्शा चलाता हूँ। माई का यह भ्रम बना रहने दिया है मैंने। बेचारी इसी आस में तो सालों से जी रही थी।"

"ओह! इस सड़क पर आज फिर ट्रैफिक जाम! बाबूजी क्या करूँ? यहाँ रुकूँ या दूसरे रास्ते से ले चलूँ।"

जवाब के इंतजार के बिना ही उसने रिक्शा मोड़ लिया। जब अपने मन की ही करनी थी तो पूछा ही क्यों था!

*****

4. क्या ठग है वह?

"कहाँ से हो?" यकायक मेरे मुँह से निकल गया।

"बाबूजी मधुबनी, बिहार से। नाम तो आपने सुना ही होगा! अरे क्यों नहीं सुना होगा! पूरे संसार में मशहूर है हमारे 'मधुबनी' का नाम। वहाँ की चित्रकारी सभी जानते हैं। सीता मैया भी यही चित्रकारी करतीं थीं। मेरी माई भी कर लेतीं हैं। हमारे झोपड़ी के बाहर की दीवार पर की हुई है। मेरे पास आपके जैसे फोटो लेने वाला फोन नहीं है, अगर होता तो फोटो दिखाता। माई की फोटो भी दिल में बसी हुई है।  सोचता हूँ अगली बार गाँव जाऊँगा तो उनकी फोटो बनवा कर ले आऊँगा। याद आने पर कम से कम देख सकूँगा।"

इतने में घर आ गया। मैं पैसे देने लगा तो कहने लगा, "आप तो मेरे राम जी हैं, इस केवट की नैया पार लगाने आए थे। चलता हूँ बाबूजी एक- आध...