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गुस्ताख़ दिल (Part 6)
कॉलेज का पहला दिन, और बाबा कि गाड़ी में सवारी, इससे अच्छा क्या हो सकता है। बाबा ने हमें कॉलेज के हर एक टीचर और रूम के बारे में बताया। उनके चहरे और आवाज़ से उनकी खुशी का साफ़ पता चला रहा था। वो बड़े गुरुर से सबको बता रहे थे कि ये मेरी बेटियांँ हैं। उनकी आँखों में अपने लिए ये गुरुर देखकर ऐसा लगता मानो हमने कोई बड़ा सा पुरुस्कार जीत लिया हो।
कॉलेज आकार तो हमारी दुनिया ही बदल गई थी। कितना कुछ जानने और सीखने को मिला था। शिल्पी अपने लंबे बालों और आरिफ़ अपनी काजल वाली आँखों के लिए यहांँ मशहूर भी हो गए थे। प्रशांत भी टीचर में बीच बातचीत का मुद्दा बना हुआ था आखिर तो था ही इतना होनहार। इन सब के बीच कोई आम ही ज़िंदगी जी रहा था तो वो थी मैं।
शिल्पी और प्रकाश के बीच नजदीकियांँ बढ़ती जा रही थीं। पसन्द तो दोनों ने एक दूसरे को स्कूल में ही कर लिया था बस अब उसका रंग और गहरा कर रहे थे। वो दोनों अक्सर लाइब्रेरी की ख़ामोशी में एक साथ यादें बनाते नज़र आते। जाने क्या मज़ा आता था उनको वहांँ, न बोल सकते हैं, न हंँस सकते और न ही ज्यादा देर तक एक दूसरे की निगाहों में झाँक सकते हैं, कभी कभी तो बाकी बच्चे भी उनके साथ पढ़ने बैठ जाया करते थे। पढ़ता मुझे भी पसन्द है पर ऐसी ख़ामोशी में तौबा तौबा।
कुछ न मिलने पर मैं आरिफ़ के साथ उसके पीछे पीछे ही हो लेती, कम से कम अकेले तो नहीं रहना पड़ता था। को बात अलग है कि दिन खतम होने तक कई बार हमारी बहस हो जाता करती।
आरिफ़ को जब पहली बार देखा था और उसके बारे में वो सब सुना था तो लगा था शायद ये सच में ही बुरा है। पर स्कूल में उसे जानने और उससे दोस्ती होने के बाद पता चला के वो उतना भी बुरा नहीं है जितना बताया जाता है। उसने सारे ही बुरे काम और बुरी संगत छोड़ दी थी। बस एक चीज़ थी जो अब भी नहीं बदली थी उसकी आँखों का काजल।
"यार! स्कूल तक तो ठीक था पर कॉलेज में भी? सीरियसली? काजल लगाया है ये आँखें काजल में डूबो आए हो? हद है इतना तो लडकियांँ भी नहीं लगाती।" चाय की चुस्कियांँ लेते हुए मैंने कहा।
"अम्मी कहती है मैं बहुत सुंदर हूंँ, मुझे किसी चुडैल "जैसे की तुम" की नज़र न लगे इसलिए लगाती है अपने हाथों से।" वो इतराते हुए बोला।
उसकी ये बात सुन मेरे मुंँह से चाय की बूंदे जमीन पर गिर गई। ख़ुद को संभालते हुए मैंने उसे देखा और कहा, "सुंदर? और तुम? उसके लिए काजल? अरे ताबीज़ पहन लो पर काजल वो भी इतना मोटा।"
उसने मुंँह बनाया और चाय पीने लगा।
"मुझे ऐसे लड़के बिल्कुल नहीं पसन्द।"
"कैसे?"
"तुम्हारे जैसे? जो अपनी अम्मी को ये कहने में डरते हैं कि मैं काजल नहीं लगाऊंँगा और अपने डर को छुपाने के लिए कहानियांँ सुनाने लगते हैं।"
हमारे छत वाले कमरे से उसका कमरा साफ़ नज़र आता है, देखा था कई बार मैंने उसकी अम्मी को उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ जाकर उसकी आँखों पर काजल लगाते और उसके बाद उसका बिस्तर या पर्दे के कोनों से अपनी आँखों का पोछते रहना। और इसका कारण भी हम दोनों बहुत अच्छी जानते थे।
आएशा आरिफ़ की दूसरी मांँ थी। उसकी सगी मांँ के मरने के बाद उसके बाबा ने दूसरी शादी कर ली जो आरिफ़ को बिलकुल पसन्द नहीं करती। अक्सर उसको देखने में बदसूरत सा बनाए रखती ताकि उनका बेटा ज्यादा सुंदर लगे देखने में। किसी कैदखाने से कम नहीं था वो घर। उसके अब्बा सब कुछ जानकर भी कुछ नहीं कहा करते। घर का सारा काम उसको ही दिया जाता करने को। और इसका सौतेला भाई वो तो मज़े की ज़िंदगी जी रहा था। आरिफ़ उनकी इज्ज़त करता था इसलिए सब कुछ छुप चाप सह लेता था। खाना मिले तो भी, न मिले तो भी वो कभी अपनी दूसरी अम्मी की बुराई न तो किया करता न ही सुना करता।
हमारे बीच होने वाली अधिकतम झगड़ों का कारण वो ही हुआ करती, और आदतन वो हर बार अपनी अम्मी की ही तरफ़ से बोला करता।
"नीति देखो, मुझे जो कहना है कहो मेरी अम्मी या मेरे घर के किसी सदस्य के बारे में कुछ नहीं कहना।" वो हर बार यहीं कहता।
"कल को तुम्हारी शादी होगी तुम्हारी बीबी मतलब बेगम आएगी तब भी सब कुछ चुप चाप सहोगे क्या? तब भी चुप रहना ही सिखाओगे क्या?"
"मेरी बेगम है मैं देख लूंँगा। तुम तो ऐसे गुस्सा हो रही हो रही हो जैसे निकाह करके तुम मेरे घर आने वाली हो।"
"तुम दुनिया के आखरी लड़के भी हुए न तब भी शादी न करूंँ। जो अपने लिए नहीं बोल सकता वो मेरे लिए क्या बोलेगा।"
ये हमारे बीच आखरी बहस थी जिसके बाद से हमने कभी हमारी किसी भी लड़ाई या बहस को उसके या मेरे घर परिवार और शादी तक आने दी हो। हम अक्सर बीच बहस में ही ख़ामोश हो जाते जैसे मालूम हो की ये बहस कहा तक जाएगी। अच्छी बात ये थी इससे हमारी दोस्ती और गहरी हो गई थी।
मुझे किसी के निजी मामले में बोलने या किसी के परिवार वालों को बुराई करने का शौक नहीं था, मैं तो बस उसे तकलीफ़ में नहीं देख सकती है जो उसकी काली काली आँखों में मुझे साफ़ दिखाए देती।

© pooja gaur
Pooja Gaur