शिवरात्रि पर्व
भारत के अधिकतर उत्सव खानपान , मेलजोल, गीत संगीत और आनंद से सराबोर है, लेकिन महाशिवरात्रि अकेला ऐसा पर्व है जो साधना और समर्पण का भाव लिए है। शिव पुराण में कहा गया है की सृष्टि पर सभी जीवित जीवो के अधिनायक स्वामी शिव ही है। उनकी इच्छा से सभी प्रकार के कार्य और व्यवहार संपन्न होते हैं। कथाएं कहती हैं कि फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को अग्नि लिंग के रूप में शिवजी पृथ्वी लोक पर अवतरित हुए थे। कैलाश पर्वत पर कठोर तपस्या के दौरान कीड़े मकोड़ों ने शिवजी के कानों में बिल बना लिए थे। कैलाश पर्वत पर उसके बाद फाल्गुन की चतुर्दशी को सभी देवी देवताओं के अनुरोध पर शिवजी धरती पर आए। इसी समय को महाशिवरात्रि कहा जाने लगा। ऐसा भी प्रसंग है कि शिवरात्रि के दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव कर रहे थे और तभी उन्होंने ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से देखा लेकिन देवी देवताओं के अनुरोध पर वह अपने नेत्र की ज्वाला पर नियंत्रण करके विश्व को समाप्त करने से पहले ही ठहर गए इसलिए इस दिन को भी महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि के रूप में मनाया जाता है। कई जगह यह बात भी सामने आती है कि इसी दिन भगवान शिव जी का विवाह हुआ था। तीनों भुवनो की अपार सुंदरी और शीलवती मां पार्वती को अर्धांगिनी बनाने वाले भगवान शिव हमेशा प्रेतों और पिशाचों से घिरे रहते हैं। भगवान शिव का जो रूप है सबसे अलग है शरीर पर शमशान की भस्म है, गले में सर्पों की माला, कंठ में विष, जटा में पावन गंगा और माथे पर प्रलयंकर ज्वाला। शिवजी बैल को अपनी वाहन के रूप में प्रयोग करते हैं, वे भक्तों का मंगल करते हैं। शिव जी का स्वभाव भोला है और वे सिर्फ जलर्पण करने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार माता पार्वती ने भगवान शिव जी से पूछा था कि आप किस वस्तु से सबसे ज्यादा प्रसन्न होते हैं तो भगवान शिव जी ने कहा कि जो भक्त उनके लिए श्रद्धा भाव से व्रत करता है वे उस से सबसे अधिक प्रसन्न होते हैं । इसलिए इस दिन श्रद्धालु अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए शिवालयों में जलाभिषेक पूजा अर्चना और उपवास करते हैं। चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान भोलेनाथ अर्थात स्वयं शिव ही है इसलिए प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष को चतुर्दशी की मासिक शिवरात्रि के तौर पर भी मनाया जाता है।
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