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मौत किसी का इंतजार नहीं करती

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हृदय रोग से पीड़ित पिता, एक बड़े से घर में अकेले ।
जब कभी पीड़ा बढती, एक फोन पर पास के शहर से, बेटी दौड़ी चली आती ।
एक दिन कुछ ऐसा हुआ, पीड़ा बढ़ी तो फोन किया
आरही हूँ पिता जी, बेटी ने कहा ।
उधर पतिदेव कुछ अनमने से थे, रोज-रोज का यह तमाशा, जा कर उन्हीं के पास रहो चिढ़कर पतिदेव ने कहा ।
बेटी -किंकर्तव्यविमूढ, सिसक पड़ी ।
फिर फोन की घंटी बजती है,
क्यों परेशान करते हो पापा, आरही हूँ न थोड़ा धीरज भी नहीं रख सकते क्या?
मैं ठीक हूँ, बेटी परेशान न होना तुम ।
और फोन हाथ से छूट जाता है ।
फोन पर पापा पापा की आवाज आती रही,
लेकिन जवाब देने वाला कोई न था ।
अनजाने में जुबान फिसल गई,
और वह मन मसोस कर रह गई ।
जिन्दगी इंतजार नहीं करती, किसी के आने का ।
घटना घट जाती है, इंतजार रहता है किसी बहाने का ।
न तो पूर्णतः सत्य है, न ही कोरी कल्पना ।
कुछ अनावश्यक बातों को नजरअंदाज कर बनी है यह रचना ।