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त्रिभंग मुद्रा…और मैं
त्रिभंग मुद्रा…और मैं

भारतीय स्थापत्य कला में त्रिभंग मुद्रा का एक विशेष स्थान है।दसवीं-बारहवीं शताब्दी के अधिकांश मंदिरों में प्रतिमाएँ इसी त्रिभंग मुद्रा में उकेरी जाती थीं।

मंदिरों के गर्भगृह के बाहर द्वारपाल, मुख्य मण्डप के स्तम्भों पर नायक-नायिका एवं छत के गोलाकार छत्र पर यक्ष-यक्षिणी एवं गंधर्वों की प्रतिमाएँ इसी त्रिभंग मुद्रा में बनाई जाती थी।

त्रिभंग एक विशेष मुद्रा है।त्रिभंग में शरीर में तीन मोड़ होते हैं; गर्दन, कमर और घुटने पर, इसलिए शरीर कमर और गर्दन पर विपरीत रूप से घुमावदार होता है जो इसे एक कोमल "S" आकार देता है और इसे ओडिसी पदों में सबसे सुंदर और कामुक माना जाता है।

इस त्रिभंग मुद्रा का उद्भव लगभग ईसा से 2300 वर्ष पुराना माना जाता है एवं इसे भारतीय मूर्ति शिल्प में एक बेहतरीन मुद्रा होने का गौरव प्राप्त है।

ख़ैर…उपर तस्वीर में नीली पेंट वाले को देख रहे हो ना …नहीं नहीं वो कोई और नहीं मैं ही हूँ…उसमें मेरे खड़े होने की जो मुद्रा है ना …उसे ही शास्त्रों में त्रिभंग मुद्रा कहा गया है 😁🙏।


सनद रहे कि त्रेतायुग में भगवान श्री कृष्ण भी इसी चिर-परिचित मुद्रा में खड़े होकर बंसी बजाते थे……वैसे आजकल अपन भी इस कलियुग में उसी चिर-परिचित मुद्रा में खड़े होकर कैमरा चलाते हैं….आख़िर अपन वंशज जो ठहरे उन्हीं के 😉🙏।

बतकही- त्रिभंग मुद्रा …और मैं
✍️ विक्की सिंह

तस्वीर- सूर्य मंदिर, मोढेरा
PC- Mr Arnauld Grevin, France

© theglassmates_quote