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चित्त- जिज्ञासा मात्र ख़ोज रही,
चार पहर को शांत- सरल राह;
राहगीर की मात्र इत्ती सी चाह,
इसी चाह बीत रहे बारह माह।
दो जून भोजन तन ढकन सूत,
एक छत जो रोक ले तीव्र धूप;
रोक ले वर्षा शीत ऋतु आघात,
जीवन सत्य सबल करे साक्षात।
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चित्त- जिज्ञासा मात्र ख़ोज रही,
चार पहर को शांत- सरल राह;
राहगीर की मात्र इत्ती सी चाह,
इसी चाह बीत रहे बारह माह।
दो जून भोजन तन ढकन सूत,
एक छत जो रोक ले तीव्र धूप;
रोक ले वर्षा शीत ऋतु आघात,
जीवन सत्य सबल करे साक्षात।