...

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नयना न रोए
एक पौधा था जिसे पाली थी मालिनी
फूल खिला मगर रख न सकी सम्भाल कर,
गीत सुनाया करती थी उसे देशप्रेम का,
मगर असर न हुआ उसपर उस गीत का
शहरी चमकदमक ले गयी उसे उड़ाकर।


अंतरात्मा रो रही थी,आह न निकली मुंह से
पथराई आंखें लेकर बैठी रहती थी द्वार पर,
आत्मा रोई बार-बार, नयना न रोए एकबार
दुआएं दे रही थी उस पाषाण को बार बार।

आग की लहर उठ रही थी बेचैन मन में
यादों के कांटे चुभ रहे थे हृदय में,
पश्चाताप की वेदना से जल रही थी शरीर में
चूक आखिर कौन सी रह गई थी प्यार में।

तूफानों से लड़कर जिंदगी कट रही थी
आशा भरी उमंग से राह देख रही थी,
मौत आने से पहले दिखे झलक लाल की
अंतिम क्षण में बिस्तर पर पड़ी थी,
लाल कहकर भीषण ज्वाला से मुक्त हो गई
आत्मा रोई बार-बार, नयना न रोए एकबार।