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ज़ख़्मों को यूं मदहोश ना समझना.....…....✍🏻
ज़ख़्मों की निशानी को यूं ख़ामोश ना समझना
गमों की उलझनों को तुम आग़ोश ना समझना
ज़िंदगी के तमाम तमाशों को यूं सुलझने बैठा हूं
तुम मेरे इन इम्तिहान को ग़म-कोश ना समझना

उम्र की निर्दोष उम्मीदें वक़्त के साथ गुज़र रही है
सुलझनों की कहानियों को हम-दोश ना समझना
निगाहों के प्रश्नों को मैं आहिस्ता से लबों पे छेड़ा हूं
तुम बैठे - बैठे ज़ख़्मों को यूं मदहोश ना समझना

गमों का इक इक हिसाब किताब समेटकर चलता हूं
झूठी मूठी तसल्लियों को यूं कफ़न-पोश ना समझना
नए रास्ते पे पुरानी ठोकरों का ज़िक्र इकट्ठा करा हूं
ज़िंदगी के फ़लसफ़ो को तुम फ़रामोश ना समझना

झूठी मूठी तसल्लियों के सिलसिले का इक हिस्सा हूं
टूटती बिखरती ख्वाहिशों को यूं बेहोश ना समझना
मैं आज फिर गमों की हसीन महफ़िल सजा रहा हूं
ज़ख़्मों के ख़ामोश ज़िक्र को यूं कोश ना समझना

हाल-ए-हालातों के मिजाजों की उलझनों देखता हूं
बदलते हुए इन मौसम को यूं सरफ़रोश ना समझना
बहते हुए अश्कों के साथ रात की फ़िक्र कहानी हूं
गमों की उलझनों से मुझे यूं मय-फ़रोश ना समझना

© Ritu Yadav
@My_Word_My_Quotes