...

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"शहीद की बूढ़ी माँ"
सूनी सी एक शाम को थामे अपनी बाहों में,
बिछाएं बैठी थी पलके, सदियों से खामोश राहों में,
कांपते हाथों से सुलगा रही थी लकड़ियाँ चूल्हे में,
घुल रहा था धुंआ, आँखों से बहते अश्को में,
दूर रेल की सीटी, चीर रही थी कमरे के सन्नाटे को,
सुनकर जिसे दौड़ रही थी,
चेहरे पर उसके खुशियों की लहरे कई,
दस्तक सुन दरवाजे पर, सहम सी वो जाती हैं,
लड़खड़ाते कदमो से दरवाजा खोलने आती है,
देख दरवाजे पर अचानक बहते अश्क रूक से गए,
तेजी से बढ़ते साँस एकदम थम से गए,
बुढ़ापे का एकमात्र सहारा उसका,
तिरेंगे में लिपटा हुआ था खुद कंधो के सहारे,
एक ही पल में यादें उसकी, दिल में तूफ़ान उठा जाती हैं,
आँखों के सहारे अश्को की नदियाँ बहा जाती हैं,
चूम कर माथे को, किया था रुखसत घर से जिसे,
चूम कर माथे को फिर से,
कर रही है आज रुखसत इस जहाँ से उसे,
है फक्र उसे, खून उसका देश के काम आया हैं,
मरते तो है "अजय", दुनिया में सभी, मगर,
उसका लाल "शहीद" कहलाया हैं...

© अजय खेर