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गज़ल
दिल्ली में अजमेर में और आगरा में
तुम ही तुम दिखती हो मुझको हर जगह में
तुम हुनर जिसको दिखाने जा रहे हो
ख़ामियाॅं वो ढूँढ लेता है ख़ुदा में
साॅंसें सीने को रगड़ती जा रहीं हैं
है सियासत घुल गयी आब-ओ-हवा में
साॅंस,दिल,धड़कन से सब को खाली करके
बस तुम्हें ही रख रहा हूँ हर जगह में
ग़ज़लों में 'जर्जर' रवानी ही नहीं है
हो रही हैं ग़लती रब्त-ओ-क़ाफ़िया में
तुम ही तुम दिखती हो मुझको हर जगह में
तुम हुनर जिसको दिखाने जा रहे हो
ख़ामियाॅं वो ढूँढ लेता है ख़ुदा में
साॅंसें सीने को रगड़ती जा रहीं हैं
है सियासत घुल गयी आब-ओ-हवा में
साॅंस,दिल,धड़कन से सब को खाली करके
बस तुम्हें ही रख रहा हूँ हर जगह में
ग़ज़लों में 'जर्जर' रवानी ही नहीं है
हो रही हैं ग़लती रब्त-ओ-क़ाफ़िया में
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