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ग़ज़ल
हटे ग़र आँख से पर्दा हमारा।
नज़र आए हमें जलवा तुम्हारा।
तेरे दरबार में सच सच बताना,
कभी होता है क्या चर्चा हमारा।
कोई आये या जाये फ़र्क़ क्या है ,
ये दरवाजा खुला रहता हमारा।
मज़े दुर्जन के, दुःख सज्जन के हिस्से,
हुआ गड़बड़ बहीखाता तुम्हारा।
सड़क पर, पार्क में, ऑफिस, कचहरी,
जहाँ देखो वहाँ कब्ज़ा तुम्हारा।
छिड़ी जंगें तुम्हारे नाम पर हैं,
है आख़िर कौन सा मज़हब तुम्हारा।
मुझे तो अब यही लगने लगा है,
नहीं बन्दों पे बस चलता तुम्हारा।
© इन्दु
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