...

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क़िताब में ख़त
मैंने किताब में एक खत छोड़ा था,
दिल की बातों को
पन्ना दर पन्ना जोड़ा था।...
लाईब्रेरी में घुसते ही
दाहिनी तरफ की
दूसरी गली में
ऊपर से तीसरी
मंज़िला पर वो चौथी किताब थी।...

जो किनारो से सुनहरी,
और बीच से लाल थी।
उस किताब पर एक शायर की
तसवीर के साथ नाम छपा था ,
हाँ ये वही किताब थी,
जिससे इस महीने तुमने
पांचवी बार पढ़ा था।...

मैंने तुम्हें अक्सर बायें तीसरी मेज की,
कुर्सी पे बैठा देखा था,
किताबों के ढेर में तुमको खोया देखा था।...
हर छत्तीस मिनिट बाद तुम,
बाहर जाते थे,
कभी दो घुट पानी के,
कभी सिगरेट सुलगाते थे।
मैंने ऐसा करते तुम्हें सरे आम देखा था
किसी तड़प में परेशान देखा था।...

एक बार तुम टकराये भी थे,
तुमने माफी के दो शब्द सुनाये भी थे,
तुम कही खोये हुए थे,
और भावहीन मुस्कुराये भी थे।...
तुम्हारी इस उधेड़बुन को मैंने
गहराई से देखा था,
शायद यही तुमसे मोहब्बत का
मेरे पास लेखा जोखा था।...

दो महीनों का हिसाब क़िताब मैंने
तुम्हे बतलाया हैं,
शब्दों को ध्यान से पढ़ना ये मेरी,
भावनाओं की छाया है,
मंजूर न मंजूर जवाब तुम जरूर देना,
इस किताब के, इसी पन्ने पर
एक खत रख देना।...

--मनीषा राजलवाल





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