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यशोद्धा - कृष्ण प्रेम गाथा
रिश्ता सबसे खास ये
जग का नाता तो ना लगता ये
ऊपर से ही बनकर आता ये
ऊपर वाले का भी है नाता ये
मैया यशोद्धा से जो नाता ये
जिसके हाथों में प्रकृति की रचना है
खुद वो माँ की रचना बन प्रकृति में आता है
सोचो कितना खास ये नाता है जो
नारायण को यसोद्धा पुत्र कहलाता है

उसने बड़े -2 असुरों को मार गिराया पर
मैया यसोद्धा के समक्ष सदैव सर झुकाया
मैया की डांट सुनी, फटकार सुनी, अश्रुओं से भी भिगोया मैया को
पर जो कोई और कारण बन बैठा इन अश्रुओं का सहन ना हुआ कन्हैया को

संसार के रखवाले की रखवाली वो
देखो क्या अपार मतवाली वो
ना यशोद्धा - कृष्ण सा प्रेम कहीं है ना नजरें झुकाकर वो डांट - फटकार सुनने वाला कहीं है

माँ का संतान से प्रेम तो वहीं है पर संतान दूर माँ से हो रही है
कान्हा तो शरारतों से मैया को रुलाता था आज हर माँ संतान - विरह में रो रही है
मत जाओ माँ से दूर भोगों की तलाश में
जब उन भोगों को भोग लोगे या वो भोग तुम्हें छोड़ देंगे
आना चाहोगे ममता की छाँव में

वो माँ तो फिर भी खड़ी होगी बस दूरी थोड़ी बढ़ी होगी
जो हाथ तुम बढ़ाओगे थामना वो भी चाहेगी
पर क्या ख्वाहिश ये तुम्हारी पुरी हो पाएगी क्योंकि समय - बेला तब पुरी हो चुकी होगी
और माँ बस तुम्हारी ख्वाहिशों में ही बसी होगी

- ख्वाहिश में सिर्फ (ख) ही नहींं अर्थ भी अधूरा है
पर माँ तो वो है जिसने तुम्हें जीवन की बेला में पुरा है
तो तुमने क्यूं उसे किया अधूरा है
अपनी विरह की अग्नि में झूलुशा है

संतान का माँ से अलग होना जैसे एक अंग का शरीर से अलग होना,
जो समझते हो इस पीड़ा को तो समझ सकोगे दर्द माँ का भी।

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