...

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प्यारी गौरैया
मेरे बचपन की चिड़िया
वो छोटी प्यारी गौरैया

फुर्र से यहाँ फुर्र से वहाँ
फ़ुर्तिलि न्यारि गौरैया

चीं- चीं- चीं-चीं खूब बतियाती
उठा पटक कर लड़ भी जाती

कभी लगाती पानी में डुबकी
कभी तो धूल से ही नहाती

अब नहीं दिखती कहीं
ढूँढे कहीं मिलती नहीं

क्या हुआ जो खो गयी
दूर हमसे क्यों वो हो गयी

वो कजरारी गौरैया
मट- मैली -भूरि गौरैया

कभी फुन्श की छपरी में
कभी खप्रैल की छप्पर में

कभी पुराने मकानों में
कहीं मकानों के रोशनदानो में

ठिकाना वो बनाती थी
छोटा घोंसला वो बसाती थी

तिनके चुन चुन के गौरैया
चोंच से बुन बुन के गौरैया


एक छोटा सा पेट उसका
थी उसकी नन्हीं सी चोंच

फुदक फुदक कर दाना चुगति
थोड़ी निर्भीक थोड़ी सोंच सोंच

अब वो नरम धरती कहाँ
पक्के घरों के आस पास

दावत उड़ाती वो कीटों की
जहाँ उगते थे हरे घांस

भात पोहे देख फुर्र आती गौरैया
दाने दाने को चट कर जाती गौरैया

साफ सफाई भी एक बला है
बासी -फेंके की भी आस नहीं

आधुनिकता को वो बेचारी
शायद आती थी रास नहीं

आज न वो छपरी है ना छप्पर है
न रोशन दान ही मय्यसर है

हमने हीं छीना आशियाना उसका
हमनें हीं छीना आबो दाना उसका

हमनें हीं गवायीं अपनी प्यारी चिरैया
हमनें हीं भगाई अपनी प्यारी गौरैया
© Vikram Sharma