...

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ज़ालिम दोस्त
तू दोस्त बड़ा ज़ालिम निकला यार
ज़ख्म-पे-जख्म और दर्द की दवा देता गया यार
तू आशिकों का दिवाना , मैं दोस्ती का किनारा
तू हर मोड़ पर आंशिक पाता....
मैं हर किनारे पर दोस्ती चाहता ...
तेरी जालिम निगाहें बहुत तड़पाती रही मेरे यार...
तू कभी अपनों की तरह अपनाता तो कभी गैरों की तरह ठुकराता रहा...
तेरे वादे भी हजार थे मेरे यार मुझे निभाने की‌ चाहत थी तूझे तोड़ने की चाहत थी ...
और मेरी चाहत बस बिखरती गई...
और तेरी चाहत पूरी होती गई ...
तू बस वादे तोड़ता और मै पूरी टूटती..
तुझसे ना चाहकर भी दोस्ती हुई ...
दोस्ती भी टकराहट- सी हुई
तुझमें और मुझमें फर्क भी बहुत था
तेरे आशिकों का शहर बड़ा निकला
मेरी दोस्ती का गलियारा जरा छोटा था ...
तू बस कहता था दोस्ती हूं मैं तेरी
तेरी हरकते तेरी असलियत बतलाती थी
जब होती जरूरत तुझे मेरी तब तू मुझे दोस्त कहता जब न होती तुझे मेरी तब तू मुझे अपना। ना बतलाता ...
हाय ! कभी कभी खुद पर तरस है आया
कैसे ज़ालिम दोस्ती है मैने पाया ...
- sanju mei