...

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सिंदुर ....
प्रेम में विलीन होकर ,
ये सिंदूर रोज सजाती हूँ ...
अहसास की बूँदे ,
घुली है मेरे मन में ...
हृदय से अपने ,
प्रेम को लगाती हूँ ...

वजूद हूँ मैं ,
अपनी इस प्रेम कहानी का ...
इसकी पवित्रता का मान ,
मैं रोज अपने माथे से लगाती हूँ ....

प्रतिपल जीती हूँ मैं तुम्हें ,
तुम्हारे हृदय की ध्वनि ....
तुमसे भी पहले छूती हैं मुझे ,
नम कर जाती है आँखें मेरी ....
जब उन ध्वनि को जीती हूँ मैं ....

मेरे अस्तित्व को निखार देते ,
वो पवित्र सिंदूर की ....
सात जन्म से बंधती ,
मेरे प्रेम से लिखी ....
वो पवित्र भगवदगीता हो तुम !

मेरे अस्तित्व का निखार ,
मुस्कुराता हुआ ऋंगार हो ...
प्रेम रंग से उभरा ,
हर्दयपटल का ... इंद्रधनष हो !

ये केवल सिंदूर का लाल रंग नही ,
तुम्हारी परछाई का प्रतिबिंब है ....
हैं ये जहाँ के लिए काला टीका ,
क्योंकि तुम्हारे हृदय में .....
हमारा प्रेम नजरबंद है .....