कलम के संग
आ बैठ मेरे पास
क्यों मुझसे
इतनी दूरी बनाए बैठी हो ?
तुम ही तो हो
मेरी अंतरंग साथी
फिर क्यों मुझसे इतनी ऐंठी हो
मेरा अंतर्मन तुम जानती हो....
तुमसे कितना प्यार है मुझे
फिर क्यों इतना नखरे दिखाती,
इठलाती और मदमाती
जैसे कहीं छुप सी जाती हो!
भर जाता है मन मेरा
कितने चलते अंतर्द्वंद्वों से
सच कहूं उस समय
याद बहुत तुम आती हो
शांतचित्त हृदय की चाह में
दर्द उड़ेलना चाहती हूं
पीर हृदय की कम करने को
दरस तेरा ही चाहती...
क्यों मुझसे
इतनी दूरी बनाए बैठी हो ?
तुम ही तो हो
मेरी अंतरंग साथी
फिर क्यों मुझसे इतनी ऐंठी हो
मेरा अंतर्मन तुम जानती हो....
तुमसे कितना प्यार है मुझे
फिर क्यों इतना नखरे दिखाती,
इठलाती और मदमाती
जैसे कहीं छुप सी जाती हो!
भर जाता है मन मेरा
कितने चलते अंतर्द्वंद्वों से
सच कहूं उस समय
याद बहुत तुम आती हो
शांतचित्त हृदय की चाह में
दर्द उड़ेलना चाहती हूं
पीर हृदय की कम करने को
दरस तेरा ही चाहती...