...

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kivdanti
एक नए चांद की ख्वाहिश लिए फिरता हूं, आसमां क्या कर लेगा।।
वो उसे वहां ढूंढता हैं, मैं उसे खीसे में लिए फिरता हूं, ये बेतलब जहां क्या कर लेगा।।

दुल्हन सी सजी जमीं को वो रुसवा करता हैं,निरंतर
उस बेवा रस्क मरुधरा में,कई दरख़्त लगा दूं तो..
बेपरवाह समा क्या कर लेगा।।

पाटता रहा हैं सदा,रहगुजर नदी, तालाब और समंदरो की,
मैं इनकी रुख बदल दूं तो वज्रमा क्या कर लेगा।।

लहरें तो आती है और किनारों के लब छू कर लौट जाती हैं,
आंधियों से इश्क करलूं तो ये बेसबर तूफ़ान क्या कर लेगा।।

धधकती सी लौ हैं चिंगारियो में "शायर"
हजार अश्क,से नहीं बुझती,तू लाया हैं पी लेता हूं,खैर ये मयकदा क्या कर लेगा।।

लोग कहते हैं "शायर" की वो मंदिर,मस्जिद,चर्च, गुरूद्वारों में रहता हैं,..
मैं पत्थर को खुदा कर दूं, वो खुदा क्या कर लेगा।
yyours fellow
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