...

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"अनदेखी बंदिश"
मैं वो प्रवाह नहीं मनमर्ज़ी जो,आगे बढ़ता चला जाऊँ..!
चाह कर भी किसी के आगे,बेमतलब अड़ता चला जाऊँ..!

लोग बुराइयों की बोली,बोलते बहुत हैं..!
मैं ख़ुद की तारीफ में ख़ुद ही,कैसे कसीदे पढ़ता चला जाऊँ..!

अनदेखी बंदिश का ज़ोर,पुरजोर बहुत है मुझपर..!
मैं ख़्वाबों को हक़ीक़त में,कैसे गढ़ता चला जाऊँ..!

क़ैद बंदिशों में कब तक रहूँ,यूँ ही फड़फड़ाता पँछी सा मैं..!
आज़ादी से खुले आसमाँ मे,कैसे उड़ता चला जाऊँ..!

पैर नीचे खींचने को बैठे हैं,अपने पराये सभी..!
मैं अड़िग इरादों संग,कैसे ऊपर चढ़ता चला जाऊँ..!

मुझे तोड़ने की कोशिशें,करते हैं मेरे अपने ही हरदम..!
कैसे उनके कब तक,और क्यों जुड़ता चला जाऊँ..!
© SHIVA KANT