...

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मेरा प्यार ख़ुद से
मेरे दिल में क्या है ऐसा जिसे फिर से जगाऊं,
उन यादों की सूनी राहों पे फिर से क्यों जाऊं.

कई दिन गए, कई चांद सूरज उन राहों पे चढ़े,
जब थक चुके हैं पांव मेरे, तो क्यों इन्हें उठाऊँ.

हां, मानता हूं चलना ही है ज़िंदगी सबके लिए,
पर इस सफ़र में यादों का ये बोझ क्यूं ले जाऊं.

सोहबत ख़ुद की भाने लगी है जबसे, सोचता हूं,
जब साथ हूं ख़ुद के तो किसी और को क्यूं लाऊं.

है दिल पाकीज़ा मेरा पर है जलन कुछ के लिए,
क्या करूं कि इंसान-ए-क़ामिल का ओहदा पाऊं.
© अंकित प्रियदर्शी 'ज़र्फ़'

सोहबत - साथ (companionship)
पाकीज़ा - पवित्र (pious)
इंसान ए क़ामिल - संपूर्ण मानव (a complete man)
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