...

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“भोर होते ही”
भोर होते ही
ज़िंदगी की ज़रूरतों ने
होश फ़ाख्ता कर दिये
कैसे हो गुज़र
इन हालात में
फिर से वो
दुखते तार छेड़ दिये

ताकता हूँ शून्य में
कि कोई रास्ता सूझे
मरना भी है मंज़ूर
ग़र कोई इस पहेली को बुझे

रोज़ रोज़ का हो गया है ये मसला
अब तो कोई इसका हल निकले
भोर होते ही
फिर उसी क़वायद ने
वो नश्तर उभार दिये।
#ramphalkataria

© Ramphal Kataria