...

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क्या बन गई ज़िंदगी शायरी में
कुछ होता हैं जो तरबियत में
आसमानों की उन सूफ़ियत में
किन्हीं किरदारों के आसपास
या ख़ुद ही की कुछ कमलियत में
कुछ यूं बन गई हैं ये ज़िंदगी मेरी
कुछ अल्फाज़ है जो शायरी हैं
कुछ सुकून सा जो दे रही है
वो हक़ीक़त में मिलता क्यों नहीं
कि लगता हैं हम को जीना नहीं आ रहा
या फिर इन शायरों को लिखना नहीं आ रहा
ज़िंदगी इतनी कमाल हैं तो दर्द क्यों बेहिसाब हैं
समझ नहीं आता कि मतलबी हैं और इंसान हैं
इन हालातों की गर्मियों में
ख़ुद ही की सौदेबाज़ियों में
जो दर्द दर्द से मिलता हैं
उन्हीं से फिर गढ़ी शायरियों में
कुछ यूं बन गई है ये ज़िंदगी मेरी
कि अब महसूस भी होता है कुछ
तो लिखें बिन रहा नहीं जाता
और लिखने के बाद वो दर्द नहीं रहता
फिर वही सुकून बन जाता है
और ज़िंदगी को ख़ाली कर जाता हैं
जिसको बनाने में इतने अरसे लगे है
उसको कुछ अल्फ़ाज़ों से ठुकराया जाता हैं





© Pavan