...

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ग़ज़ल
बारिशों में भीग कर मैं कपकपता भी नहीं हूँ
इतना पत्थर हो गया हूँ थरथराता भी नहीं हूँ

लोग कहते हैं मुझे हंसने की बीमारी है हमदम
देख मुझ में झाँक कर मैं मुस्कराता भी नहीं हूँ

कौन याँ आकर संभालेगा मेरी मदहोश बाहें
बस इसी डर से कभी मैं लड़खड़ाता भी नहीं हूँ

चाँद से कुछ चेहरे बसते होंगे सपनों के गगन में
अब तो रातों को तेरी नींदें चुराता भी नहीं हूँ

होगी ख़ामोश तेरी चाहतों की हिचकियाँ भी
वादियों में प्यार की अब गुनगुनाता भी नहीं हूँ

किस लिए फिर ये गुलाबी होंट सूखे पड़ गए हैं
अब तो जाने-जाँ मैं तुझको आज़माता भी नहीं हूँ

फिर भी रंगत तेरे चेहरे की बता क्यों है उड़ी सी
तुझको पहले की तरह अब मैं सताता भी नहीं हूँ


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