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कलयुग का दुष्प्रभाव :-
इंसान गलतियों का पुतला है;
मन की व्यथा और मन की पीर ;
इतना कह कर रो पड़े दास कबीर !!
कलयुग में ये और बढ़ जाएगा ;
सोचे ना कोई पीर - फकीर !!
जन्नत भी चाहिए हमें ;
पर खीचनी न पड़े हमें कोई लकीर;
इतना कह कर रो पड़े दास कबीर !!
बन कर जोकर हसाना पड़े दुनिया को;
उसमें भी तमाशा देखे ठेकेदार और वज़ीर !!
इतना कह कर रो पड़े दास कबीर !!
सीखने को है सब कुछ यहां;
पर अपनी गलती चढ़ाएं दूसरों के सर;
खुद को माने सक्षम और अमिर !!
देख दुनिया की रीत रो पढ़े संत कबीर !!
ऊंची दूकान और फिके पकवान;
खुद को लगे खुद अपने ही बलवान;
छीन औरों की खुशी बनते हैं यहाँ निकम्में भी पहलवान;
ऊंची काठी ऊंचा कद;
माने खुद को बड़ा अमीर !!
दिल के काले पर शरीर सफेद ;
सबसे करते रहे फरेब;
इतनी सी थी बात..
हाय ये कैसी व्यथा;
कलयुग का कैसा दुष्प्रभाव;
कटने और काटने में लगा रहे तलवार;
शब्दों के बाण और शब्दों के तीर;
और इतना कह फिर रो पड़े दास कबीर !!

@sukoon_peaceofmind
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