...

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क्या इसीलिए पैदा हुए हैं..
क्या इसीलिए पैदा हुए हैं,
क्या यही हमारी जिंदगी है।

अकेले आए हैं अकेले जाना है
जीना और मरना भी अकेला है
दुनिया के हर रिश्ते हर संबंध
बस एक महज छलावा है
जब हम अकेले मर सकते हैं
फिर अकेले जीना क्यों नहीं?
क्यों चिपटे रहते हैं परस्पर
क्या यही सब कुछ हकीकत है।
क्या इसीलिए पैदा हुए हैं,
क्या यही हमारी जिंदगी है।

क्यों गुत्थम गुत्थी हो रहे हैं
इस सांसारिक माया जाल में
पैदा होकर बड़ा होना
नहाना खाना सोना और जागना
उदर पूर्ति के लिए कोई ना कोई
व्यवसाय करना और कमाना
निरंतर वंश वृद्धि में लगे रहना
धीरे-धीरे खर्च होते जाना
क्या इसीलिए पैदा हुए हैं,
क्या यही हमारी जिंदगी है।

फिर एक समय ऐसा लगे
हाथ खाली रह गया हमारा
ऐसा कुछ भी अर्जित नहीं किया
ऐसा कुछ भी नहीं कमाया
पशुअत आचरण करता हुआ
भरमाता रहा खुद को खुद से
निरीह लाचार और बेसहारा
बना दिया अंतिम पथ के लिए।
क्या इसीलिए पैदा हुए हैं,
क्या यही हमारी जिंदगी है।

उठो जागो संभलो जरा सोचो
कैसे किस तरह उत्थान होगा
कैसे सार्थक होगा पैदा होना
कैसे जरा जन्म के इस भँवर से
उबर पाएँगे बचा पाएँगे खुद को
कैसे मुक्ति मिल पाएगी
जीवन मृत्यु के मोह पास से
कालचक्र के भयंकर प्रहार से
क्या इसीलिए पैदा हुए हैं,
क्या यही हमारी जिंदगी है।
© राकेश कुमार सिंह