...

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देखों, अब वक़्त बदल गया
कहीं खो गई है दादी नानी की कहानियां,
वो पानी की पनीहारी वो सिला पर पड़ी
निशानियाँ,
बच्चे जल्दी बड़े हो जाते हैं, क्या पता
कैसी होती थी वो बचपन की नादानियां।
देखों, अब वक़्त बदल गया।

घर अब घर नहीं मकान हो गया,
पड़ोसी अपने पड़ोसी से अनजान हो गया,
वो बुढ़ा शजर सब देख रहा है, देखों
मेरे गाँव में शहर सा रुझान हो गया।
देखों, अब वक़्त बदल गया।

माँ बाबा अब मॉम - डेड हो गए,
चारपाई घट कर डबल बेड हो गए,
ओझल हो गया शायद रोटी से स्वाद,
खाने में अब पास्तें और ब्रेड हो गए।
देखों, अब वक़्त बदल गया।

कच्ची सड़कें अब हाई-वे तो हो गई,
पर बैलगाड़ी की वो रोनक खो गई,
यातायात से है धुंआ धुंआ, मानों
भोर होने से पहले ही साँझ सो गई।
देखों, अब वक़्त बदल गया।

जनसंख्या अमर बेल सी बढ़ रही है,
पर सीमा खलिहानों की घट रही है,
बचपन से जिसने सबको पाला,
आज वो माँ भी भाइयों में बंट रही है।
देखों, अब वक़्त बदल गया।

भाईचारा अब चारा हो गया, आगे
बढ़ते की टांग खींचना काम हमारा हो गया,
कितने सपने संजोए थे कल जमाने में
मेरा आज इक्कीसवीं सदी का मारा हो गया।
देखों, अब वक़्त बदल गया।

चेतन घणावत स.मा.
साखी साहित्यिक मंच, राजस्थान
© Mchet043