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ग़ज़ल
भटकते रहे हम इधर से उधर ।
समझ में न आई तेरी रहगुज़र ।
खड़ा इक दोराहे पे सोचूं यही,
यहां से भला अब मैं जाऊं किधर ।
डरी सहमी कलियां किसे क्या कहें,
लगे क्यों उन्हें बागबां से ही डर ।
बहारें भी लगता हैं गिरवीं कहीं,
कि अब फल रहे हैं चुनिंदा शज़र।
अंधेरे उजालों पे हावी हुए,
नहीं दूर तक है उम्मीद ए सहर ।
© इन्दु
समझ में न आई तेरी रहगुज़र ।
खड़ा इक दोराहे पे सोचूं यही,
यहां से भला अब मैं जाऊं किधर ।
डरी सहमी कलियां किसे क्या कहें,
लगे क्यों उन्हें बागबां से ही डर ।
बहारें भी लगता हैं गिरवीं कहीं,
कि अब फल रहे हैं चुनिंदा शज़र।
अंधेरे उजालों पे हावी हुए,
नहीं दूर तक है उम्मीद ए सहर ।
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