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ग़ज़ल - छोड़ आया हूँ कहीं...
छोड़ आया हूँ कहीं, गैरों में खुद की हँसी,
दफ़्न जो जीते जी रही ऐसी इक मैं ज़िंदगी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
लफ़्ज़ मेरे ये सच्चाई बयां कर ना सके,
किस तरह मैंने गंवाई ये मेरी हर इक खुशी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
हर किसी में मुझको इक अक्स दिखा करता है,
इस तरह आँखों में भर ली मैंने तस्वीर तेरी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
मुझको कुछ इल्म हकीकत से भी प्यारे थे कभी,
ख्वाब बनकर ही रहे मेरे वो इल्म सभी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
मेरी चाहत थी मैं मरहम सा भरूं ज़ख्म मग़र
ज़ख्म हांसिल बस मुझे इसमें क्या मेरी कमी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
© AK. Sharma
दफ़्न जो जीते जी रही ऐसी इक मैं ज़िंदगी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
लफ़्ज़ मेरे ये सच्चाई बयां कर ना सके,
किस तरह मैंने गंवाई ये मेरी हर इक खुशी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
हर किसी में मुझको इक अक्स दिखा करता है,
इस तरह आँखों में भर ली मैंने तस्वीर तेरी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
मुझको कुछ इल्म हकीकत से भी प्यारे थे कभी,
ख्वाब बनकर ही रहे मेरे वो इल्म सभी।
छोड़ आया हूँ कहीं...
मेरी चाहत थी मैं मरहम सा भरूं ज़ख्म मग़र
ज़ख्म हांसिल बस मुझे इसमें क्या मेरी कमी।
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