...

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प्रेम पीड़ा .......
प्रेम को जिया भी था जी भर के
उस से ज्यादा विछोह की पीड़ा झेली है

ये पीड़ा पुश्तैनी क़र्ज़ की गहरी जड़ों की तरह
ह्रदय के भीतर बस बढ़ती बढ़ती ही जाती है

बढ़ते अविरत समय के साथ, मूल से ज्यादा सूद
चक्रवृद्धि ब्याज की तरह पीड़ा को चुका रही हूँ

निस्सार ह्रदय में दुःख का दरवाजा ही खुलता
अंदर अंधियारे में करुणा का वास है रहता

साथ न रह पाना, ये तो पीड़ा का बीज है
तुमने जो अलग किया अपने से मुझ को
...... ये तो पीड़ा वृहद बरगद का वृक्ष है

साँस, अन्न, जल और नींद के बिना तो
फिर भी मुमकिन है, कुछ पलों का जीवन
प्रेम के बग़ैर
भला कोई कैसे जी सकता है ,एक भी क्षण?

आभार तुम्हारा कोटि कोटि मैं अर्पित करती हूँ
प्रेम ना सही ,तेरे प्रेम पीड़ा से मेरी सांसे चलती है

© ऋत्विजा