...

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"सोच"


चलो कुछ अलग करतें हैं,
दुनिया की भीड़ से थोड़ा अलग चलते हैं।

मालूम हैं अंधेरा घना होगा,
छोटी सी शमां अन्दर रौशन किए चलते हैं।

थकने से रुक जायेंगे थोड़ा,
अपने दामन से वादाएवफ़ा सिए चलतें हैं।

गिरेने से चोट लगेगी ज़रूर,
क़रीबी अहम को कुछ दूर जिए चलतें हैं।

हारने को तैयार हूं तो जीत क्या बिगाड़ लेगी वाणी,
सोच के टुकड़ों से अपना रब बनाकर साथ लिए चलतें हैं।
© प्रज्ञा वाणी