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निर्बल मां
कल अश्क गिरा एक बादल से, उसकी आंखों के काजल से
वो पड़ी हुई थी कांटों पर, छूटे उस मां के आंचल से
लज्ज़ा, इज़्जत, शोहरत में दफ्न, जीते जी उसको देके कफ्न
वो कैसी निर्बल मां होगी? जो समझ गई इस सच को स्वप्न
ये बात नहीं क्यों तब सोंची? होती थी जब बिस्तर पे नग्न
तब क्यों ज़मीर को बेंच दिया, क्षण भर के सुख में होके मग्न
क्या उससे भी कुछ पूछा था? या प्यार तुम्हारा झूठा था!
क्यों गिरा दिया उस जीवन को? जो बीज अभी बस फूटा था
इसके जैसे ही तुमको यदि, खुद की मां ने मारा होता
दिन-रात भूख से बिलख-बिलख, तुमने जीवन हारा होता
तब तुम शायद अधिकारों को, नन्हीं सी चीख पुकारों को
कुछ बेहद और समझ पाती, यूं छोड़ उसे न तुम जाती
एक मां होना क्या बच्चों को, बस पैदा करना होता है?
ख़ुद की विलासिता के खातिर, क्या सौदा करना होता है?
जब बच्चे यही बड़े होकर, अपना करतब दिखलाते हैं
राधेय कर्ण के पथ पर ही, ख़ुद का इतिहास बनाते हैं
तब क्यों ममता का ओढ़ मुकुट, ये छल करने को आती हैं?
उलझी-बिखरी उस गुत्थी को, क्यों हल करने को आती हैं?
यदि प्रेम तुम्हारा सच्चा था, तो क्यों तब मन ये कच्चा था?
ये याद नहीं कैसे तुमको? जब उसको फेंका बच्चा था
क्या तनिक व्यथा भी नहीं हुई? आंखें नम कैसे नहीं हुई?
वो भी तेरा एक हिस्सा है, एक रात का ना वो किस्सा है
उसके खातिर लड़ सकती थी! अपनी ज़िद पे अड़ सकती थी!
तू उसको साथ लिए दुनिया में, भी आगे बढ़ सकती थी!
अफ़सोस! तेरा उससे ज्यादा, गैरों पर ये मन अर्पण था
कुछ भीरू ही तू मां निकली, कुछ जग हंसाई का दर्पण था
पर हार गई तू आज मातृ की, शोभा भरी बजारों में
तू कितने सागर फिर भर दे, कितने जीवन उन खारों में
पर मोल तेरा अब मिट्टी से, भी न कुछ ज्यादा होगा
तू सब कुछ चाहे पा जाए, मुट्ठी से ना ज्यादा होगा...
© Er. Shiv Prakash Tiwari