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गज़ल
मेरे भीतर जलता हुआ क्या है
धीरे धीरे सुलगता हुआ क्या है
सांस बन्द और नब्ज थमी हुई
फिर ये सीने में धड़कता हुआ क्या है
ऊपर छा गई गर्द लगता है
राख में दबा दहकता हुआ क्या है
शाम हुई, सूरज भी ढल गया
क्षितिज पर ये पिघलता हुआ क्या है
बादलों का नामों-निशां भी नहीं 'आकाश'
तुम्हारी आँखों से बरसता हुआ क्या है
धीरे धीरे सुलगता हुआ क्या है
सांस बन्द और नब्ज थमी हुई
फिर ये सीने में धड़कता हुआ क्या है
ऊपर छा गई गर्द लगता है
राख में दबा दहकता हुआ क्या है
शाम हुई, सूरज भी ढल गया
क्षितिज पर ये पिघलता हुआ क्या है
बादलों का नामों-निशां भी नहीं 'आकाश'
तुम्हारी आँखों से बरसता हुआ क्या है
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