...

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तड़पता मन...
मूकदर्शक बन बैठा रहूं,
या हाथों में उठा लूं तलवार कोई।
मैं हूं अहिंसा पसंद,
या बन जाऊं वृक्ष फलदार कोई।।
दिल में ले संविधान चलूं,
या बांध कफन सर रहमों शान चलूं।
तिल तिल पनप रही जुर्मों की दुनियां,
क्या हाथों में ले मशाल शमशान चलूं?।।
कर्जदार मैं इस मिट्टी का,
ऋण इसका साकार करूं।
हो उठा विचलित मन,
पापों का कैसे नरसंहार करूं?।।
विस्मित मन आज हुआ,
बदन में क्रोध का आगाज़ हुआ।
क्या बुझा दूं इस ज्वाला को मैं!,
फिर कैसे रक्षक यमराज हुआ?।।
क्यूं नम हो रही आज आंखे,
क्यूं भारी हो रही हैं सांसें।
कैसे मैं कोई इंसाफ करूं,
बरसों बीत गए पत्थरों में जान तराशे।।
written by संतोष वर्मा .
आजमगढ़ वाले..खुद की ज़ुबानी