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ग़ज़ल:- सौ दरारें पड़ी हैं दर्पण में
तुम नहीं हो जो मेरे जीवन में
मौत ही मौत है घर आंगन में
अब मेरा हुस्न एक पत्थर है
सौ दरारें पड़ी हैं दर्पण में
हो खुशी कोई ग़म ही लगती है
दर्द ही बस है दिल की धड़कन में
कौन आये भी इसको सुलझाने
तन्हा बैठी हूं अपनी उलझन में
अब बची है तो सिर्फ़ ख़ाक बची
चांद तारे कभी थे दामन में।।
© Ananya Rai Parashar
मौत ही मौत है घर आंगन में
अब मेरा हुस्न एक पत्थर है
सौ दरारें पड़ी हैं दर्पण में
हो खुशी कोई ग़म ही लगती है
दर्द ही बस है दिल की धड़कन में
कौन आये भी इसको सुलझाने
तन्हा बैठी हूं अपनी उलझन में
अब बची है तो सिर्फ़ ख़ाक बची
चांद तारे कभी थे दामन में।।
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