...

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सपनों का शहर
जब से हुई है मेरी आमद शहर में तेरे
मुझसे रूठे रूठे सारे मयखाने हैं ।
जब से हुई है मेरी आमद शहर में तेरे
मुझसे रूठे हुए सारे जमाने हैं ।

छोड़ के जाना पड़ा हसीन ईश्क हमारी
शायद इसमें भी तेरे कुछ बहाने थे ।

तेरे सपनों का शहर आए थे
अब तुझसे भी ना कोई आस रही ।
जो सपने लिए घूमते रहे, गली में तेरे
अब उनमें भी ना कुछ खास रही ।

सपनों ने ना सोने दिए, ना नींद की प्यास रही ।
सुबह उठते थे जिन ख्वाबों के लिए
बो शहर को ना कुछ एहसास रही ।

हमें ना भाया यह सपनों का शहर ,
जहा तुम्हारी आगाज ना रही ;
तुम साथ चलते तोह जहां जी लेते ।
अधूरी तो हमारी मुलाकात रही ।।

© @gehre_alfaazein