...

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धरा
धरा रुठी हलधर से
जगत नयन रोएंगे।
न ही बरसेंगे मेघ...
न होंगी ध्वनियां बिजली की,
ख़ामोश-सा ये केसा मंज़र होगा।
न मानेगा मानव,तो अब यही होगा।*

" अचल झुके रास्तों में..
पेड़ों कि न कोई महत्वत्ता रही ।
ना सांंस धरा को लेने दी..
मानव ने मानवता बेच दी।"
है दोष नहीं जिनका, वो ²
भी पीसे जाएंगे ।
वक्त आएगा जब झुक-झुककर
शिश नवाएंगे ।
ये भी केसा लम्हा होगा,न मानेगा
तो अब यही होगा ।

गरुर है जिस धन पर.....
वो धन केसे आएगा ।
न होगा अन्न का एक दाना..
निर्दोष हलधर मारा जाएगा।

धरा रुठी हलधर से²
जगत शिश झुकाएगा।





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