...

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पार्क बेंच
बनाने वाले ने लोहे का बनाया था मुझ को,
बड़ी सुंदर कारीगरी की थी मुझ पे।
सभी जानते थे मेरी मजबूती, मानते भी थे।
हरे रंग से ढक दिया था मेरे शरीर को,
के कहीं कोई कमी न रेहजए मुझमें।

सूरज की रोशनी से, बारिश की थपेड़ों से,
बचाकर एक घने पेड़ के नीचे बिठाया मुझे।
मैं खुश था के इतना स्नेह पाया उनसे।
मेरा काम बड़ा आसान था,
थके मुसाफिरों को थोड़ी राहत देना।
वो थके हुए मुझ पर बैठते अपनी थकान मिटाने को,
मैं बस शांति से पड़ा रहता उनके जाने तक।

उम्र भी अब उस पायदान पर है,
जहां यादों के पीछे का सच दिखने लगा है।
ये जगह मेरे लिए नहीं,
मुसाफिरों के लिया बना है।
कई आए, बैठे, बातें भी की,
कुछ मीठे, कुछ कड़वी मुलाकातें भी की,
किसी को मेरी फिकर नही पड़ी थी तब तक,
जब तक वो थक नहीं जाते।
थके हुए मुझे ऐसे निहारते हैं,
जैसे उम्र भर मेरा ही इंतजार हो।
थकान मिटते है और फिर आगे बढ़ जाते हैं।

सालों बीत गए यूं धूप बारिश में भीगते,
अब तो जंग भी दिख रहीं है साफ मेरे शरीर पर।
अब खूबसूरती नही रही, ना रही वो मजबूती।
लोहे का इसलिए बना था मैं,
पेड़ के नीचे पड़ा था मैं,
ताकि दूसरों के काम आऊं।
उम्मीद तो कब की छोड़ दी मैंने,
के कोई संवारने आयेगा।
इस जंग लगी जिंदगी को,
सुधारने कोई आयेगा।

मैं खुश हूं आज भी,
के दूसरों के बोझ को और नही से रहा।
खुद को संभालता पड़ा हूं यहां,
क्यूंकि कोई और नही संभाल रहा।
मुझे पता है मुझे बदल दिया जाएगा,
क्यूं के हमें बनाया गया था इस दुनिया के लिए,
मुसाफिरों के लिए, थके हारों के लिए।
हम ही सोच बैठे थे, अपनी गलतफहमी में,
के हम बने थे किसी एक के लिए।
© amitmsra