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कलयुग की कयामत!
" आसमान कुछ इस तरह साफ़ हुआं फ़किरा का
के सारा तमाशा ही सब बदल गया मेरे मदारी का
खेल जो कुछ भी इस रंगमंच पर वह किरदार
निभा रहा था, दिखा रहा था, अदा कर रहा था
किसी गलतफहमी का शिकार हो कर खेल रहे थे
वह भोले-भाले जनता के जज़्बातो के साथ
जो बेवकूफ बना कर रख सकता था
और इस कला में वह बहुत ही निपुण था
किसी एकलव्य के जैसे एक ऐसा शिष्य
जो बीना गुरु के ही गुरु-दक्षिणा दे बैठा था
यह तो होनी था जैसे जो हो रहा था फ़किरा
उसी के जैसे दिखने वाले इंसान के समीप जो
कृष्ण के आगे अब अर्जुन खड़ा था हो कर बेबस
लाचार मगर लालच और अहंकार से भी लैस धनुर्धर
ताने धनुष जैसे निकले म्यान में से तलवार कोई निर्मोही
वंशावलियों पर अब उनका जो अधिकार हो चुका था
मगर क्या गिता सुनने के लिए हर बार कोई बहन द्रोपदी
___________________लूटनी इज्जत हर बार पढ़ना था?
मगर साहब धुल तो नज़रों पर लगी थी फ़किरा
के आईना तो साफ़ साफ़ बेकसूर दिख रहा था
मगर जैसे अब सांप किसी फांसी के फंदे जैसा
लटका किसी बीना सहारे के साथ साथ वह हांथ
काले बैल पर सवार उसे लाल रंगिन चमकिले
______________________________कपड़ा दिखा कर!
भ्राता राम जैसे जो खुद अपने भाई को
किसी मित्र सुदामा माफ़िक
जो मिलों पैदल चल कर आज आया था अब
उन फुलों के पास जहां फ़किरा आस पास
कलम के कांटा था मिल कर संग वनवास
चीर सागर में आज भी समाधी अवस्था
_________________________________ में पड़ा था!
लव और कुश को प्रजा सौंप...